किसलिए संस्कृत सीखना चाहिए?

मैं अपने इस लेख में संस्कृत के उस पक्ष की चर्चा करने जा रहा हूँ, जिसकी चर्चा समाज में  प्रायः वर्जित माना जाता है। वह है कामकला। अनादिकाल से स्त्रीपुरुष परस्पर आसक्त रहे हैं। अतएव दर्शन, साहित्य,पुराण आदि की तरह ही संस्कृत में कामकला से सम्बन्धित ढ़ेर सारी पुस्तकें लिखी गयी। वह भी क्यों नहीं? कौटिल्य के अनुसार स्त्रीणाममैथुनं जरा अर्थात् मैथुन नहीं करने वाली स्त्री जल्दी ही बूढ़ी हो जाती है। काम की संतुष्टि मानसिक स्वास्थ्य का उत्तम प्रयोग है। चरक के अनुसार 16 वर्ष के पहले तथा 70 वर्ष के बाद व्यक्ति को मैथुन नहीं करना चाहिए। मजाक के रूप में कहूँ तो 10वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक आज की तरह मनोरंजन के लिए सिनेमा, टेलीविजन नहीं था। राजाओं के आमोद-प्रमोद के साधनों में आखेट एवं स्त्री से सम्भोग मुख्य थे। किसी स्त्री के साथ कैसे सम्भोग करें? सम्भोग करने की क्षमता कैसे बढ़ायें? स्त्रियों का श्रेणीकरण, मैथुन के पश्चात् आहार विहार आदि के लिए चिकित्सक और रतिशास्त्र विशेषज्ञ उनके लिए नित नये खोज में जुटे रहते थे। वह सारा अतिविस्तृत ज्ञान संस्कृत भाषा में उपलब्ध है। इन पुस्तकों में दिये गये उपायों का अपनाकर आप चरमसुख पा सकते हैं।  इसे जानने समझने के लिए आपको संस्कृत आना चाहिए। अन्यथा दीवालों पर लिखे इस्तहार के भ्रमजाल में फंसे रहेंगें। समाचार पत्रों में पतले लिंग को मौटा करने, स्त्रीवशीकरण के विज्ञापन छपते रहते हैं। दीवालों पर मर्दाना कमजोरी को दूर भगाने के लिए किसी... से मिलने का विज्ञापन पढ़ने को मिलता है। मैंने तो सुना और पढ़ा था स्त्रियाँ ही अबला (अ बला = बल हीन, कमजोर) होती, परन्तु मर्दाना कमजोरी का विज्ञापन जोरों पर है। कारण  हजारों वर्षों के शोध के पश्चात् संस्कृत में लिखी ज्ञान सम्पदा से आम जनता का अपरिचय है।
        यह लेख युवाओं, युवतियों तथा नवविवाहित जोड़ों के लिए हैं। इस मार्गदर्शक लेख को पढें। यह प्रामाणित लेख है। लेख में जिन पुस्तकों का नाम दिया गया है, उसकी मूलप्रति खरीदें। देख लें कि उसमें संस्कृत है या नहीं। कामशास्त्र से सम्बन्धित संस्कृत में लिखी मूल पुस्तकों को पढ़ने के लिए आज से ही संस्कृत का प्रारम्भिक अध्ययन शुरु करें। केवल अनुवाद पढ़ने के अधिक लाभ नहीं मिलने वाला,क्योंकि आपको नहीं पता कि कि कौन सा अनुवाद प्रामाणिक है। संस्कृत के विना आपके लिए मेरा यह कामशास्त्र तथा वाजीकरण (घोड़े के समान अति वेगवान होकर स्त्री से सम्भोग कर उसे तृप्त करना) सम्बन्धित लेख मनोरंजक हो सकता है,ज्ञानप्रद नहीं। कई बार सामान्य सामाजिक धारणा के अनुसार संस्कृत भाषा को पूजा पाठ और ज्योतिष से ही जोड़कर देखा जाता है। जो भक्तिमार्गी हैं जो संस्कृत को अध्यात्म,  नैतिकता की भाषा मानते हैं, उन्हें इस लेख को पढकर निराशा होगी।
 इस लेख में मैं कतई यह नहीं कहूँगा कि संस्कृत आत्मसंयम सिखाने की भाषा है,वल्कि इसके विपरीत कि भौतिक विलास, मनोरंजन का चरमोत्कर्ष यदि पाना चाहते हैं तो संस्कृत भाषा सीखिये। यहाँ तो सुरापान (शराब पीना) से होने वाले लाभ को बताने वाला पुस्तक भी मिल जाएगा। ऐसी ही पुस्तक है-कादम्बरीस्वीकरण सूत्रम् । इस पुस्तक में  सुरापान करके मैथुन करने की विधि बतायी गयी है। आज तक संस्कृत भाषा को छोड़कर अन्य किसी भाषा का लेखक ने आपके लिए कामकला का प्रायोगिक सटीक वर्णन नहीं किया। सभी पुस्तकों का मूल आधार यही पुस्तकें हैं। उनके पास अधकचरा ज्ञान है,क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते। आपको केवल वात्स्यायन लिखित कामसूत्र के बारे में थोड़ी सी जानकारी ही पाते हैं। संस्कृत लेखकों की तरह और लोग अबतक धोखेबाज और चालबाज दोस्त को पहचानने का नुक्शा नहीं दिया। समस्या को विश्लेषण करने की क्षमता बढाने का उपाय नहीं सुझा पाया।
     हमें इस दुनियाँ में सुख चैन के साथ जीने की अभिलाषा है। ईश्वर प्रदत्त इन्द्रिय सुख भोगने की अभिलाषा है।यह शाश्वत है। हजारों वर्षों में मानव शरीर की बनावट नहीं बदली है। रति सुख की धारणा नहीं बदली।संस्कृत उसके लिए भी साहित्य उपलब्ध कराता है। हाँ, इस लेख को पढने के बाद फुटपाथ पर बिकने वाला सस्ता साहित्य मत पढना। मैं विना सिर पैर वाला सस्ता ज्ञान नहीं देता। 
  कामशास्त्र की पुस्तकों में मुख्यतः 5 विषयों का वर्णन मिलता है। 
1-स्त्री / पुरुष के अंगों से परिचय 
2- स्त्री / पुरुष वशीकरण 
3- रतिक्रीडा तथा उसके प्रकार 
4- रतिज रोग और उसकी चिकित्सा 
5- सौन्दर्यवर्धक औषधि।  अन्य भाषा की पुस्तक में परस्पर सम्बन्धित ये 5 विषय नहीं मिलते अतः वहाँ का ज्ञान अधूरा है।  
विषय विस्तार की दृष्टि से देखें तो कामशास्त्र की पुस्तकों में मुख्यतः -
1- नायिका से प्रेम सम्बन्ध बढ़ाने (लड़की पटाने) का उपाय 
2- स्त्री पुरूष के बीच सम्भोग कला का वर्णन जैसे- स्त्रियों को कामोन्मत्त कैसे बनाया जाय? चुम्बन, आलिंगन,ओठ चूसने, कुच मर्दन आदि की विधि। कुल मिलाकर (सम्भोग के छोड़कर) बाह्यरति को 11 भागों में बांटा गया है। 
3-  नायिका (स्त्री) के प्रकार, परीक्षण, ऐसी निषिद्ध कन्या जिसके साथ सम्भोग नहीं करना चाहिए। नायिका के लिंगों की नाप जोख (लम्बाई गहराई) उसके अनुसार सम्भोग आदि 
4-बाला, तरुणी,पौढा आदि को कैसे खुश करें ,उतका स्वभाव 
5- वाजीकरण औषधियाँ, 
6- स्त्री वशीकरण, सौन्दर्यवर्धक उवटन निर्माण एवं प्रयोग विधि 
7- ऐसी स्त्री जिससे सम्भोग नहीं करना चाहिए। दूसरे पुरूष में आसक्त स्त्री, शीघ्र वश में आने वाली स्त्री आदि 8- आलिंगन, चुम्बन, नख दांत से क्षत करना, केश पकड़ कर चुम्बन लेने के प्रकार विधि आदि 
9- मैथुन या संभोग करने के आसन। 

कामशास्त्र के ग्रन्थ                                ग्रन्थकार
कामसूत्र                                   वात्स्यायन
कादम्बरीस्वीकरण सूत्रम्          पुरुरव
अनंगरंग                                  कल्याणमल्ल
रतिरहस्य                                तेजोक के पुत्र
रसचन्द्रिका                             विश्वेश्वर
कामतन्त्र ग्रन्थ                        श्रीनाथ भट्ट
पौरुरव मनसिज सूत्र मंजरी       परुरवस्
स्मरदीपिका                            इम्मदी प्रौढ़ देवराय
इसमें भिन्न- भिन्न अंगों प्रत्यंगों में भिन्न - भिन्न पक्षों की तिथियों में मैथुन से सम्बन्धित क्रिया कलाप का वर्णन किया गया है।
स्मरदीपिका मंजरी                 मीननाथ
कादम्बरस्वीकरण कारिका        भरत
रतिमंजरी                                जयदेव
रतिकल्लोलिनी                       दीक्षित सामराज
कामकुंजलता                      ढुंढिराज शास्त्री के सम्पादन में कुल 12 पुस्तकों का संकलन
इन पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय तथा वर्ण्यविषय क्रमशः प्रस्तुत करूँगा। तबतक में अनंगरंग के इन श्लोकों आनन्द लें।
स्निग्धा घनाः कुंचितनीलवर्णाः
           केशाः प्रशस्ताः तरुणीजनानाम्।
प्रेमप्रवृद्ध्यै विधिनैव मन्दं
           ग्राह्या जनैः चुम्बन-दानकाले।।
चुम्बन के समय विधि पूर्वक तरुणी के केश पर हाथ फेरने से प्रेम में वृद्धि होती है।

मुखे मुखं बाहुयोगे स्वबाहुं
             जंघाद्वये जंघयुगं निविश्य।
गच्छेत् पतिश्चेदिति कौर्मकं स्यात्
             उर्ध्वोरुयुग्मं परिवर्तिताख्यम्।
स्त्री के मुख में अपन मुख बाहु में बाहु, जंघाओं में जंघा लपेटकर रमण करें। यह कूर्मासन है। दोनों जंघाओं को ऊपर करके सम्भोग किया जाय तो यह परिवर्तितासन होगा।
संस्कृत भाषा के सम्पूर्ण स्वरूप से परिचित होने के लिए यहाँ चटका लगायें। 

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संस्कृत कैसे सीखें


   
           
संस्कृत का स्वरूप और भेद

अक्सर लोग आकर कहते हैं- मैं संस्कृत पढ़ना चाहता हूं। मैं पूछता हूं - आप संस्कृत क्यों पढ़ना चाहते हैं? उनका उत्तर होता है, ताकि मैं हिंदू धर्म ग्रंथों को पढ़ सकूँ। कुछ लोग कहते हैं- मुझे प्राचीन ज्ञान- विज्ञान को जानने की उत्सुकता है। जैसे- गीता, रामायण, पुराण, वेद,उपनिषद् आदि। कितने उत्साह के साथ लोग संस्कृत सीखने आते हैं। थोड़े दिनों में उनका उत्साह कम पड़ जाता है। कारण कि वे संस्कृत भाषा की बनावट को नहीं समझे होते हैं। उन्हें यह नहीं पता कि संस्कृत भाषा किन- किन प्रक्रियाओं से गुजर कर अपने स्वरूप को पाती है। किस प्रकार की तैयारी चाहिए? कितना समय लग सकता है? संस्कृत सीखने के लिए वर्तमान में कौन-कौन संसाधन उपलब्ध है? क्या घर बैठे विना किसी व्यक्ति की सहायता से संस्कृत सीखी जा सकती है? संस्कृत सीखने के लिए कहाँ से आरम्भ किया जाय? प्रश्न अनेक तो उत्तर भी अनेक हैं। भाषा शिक्षण की कोई भी एक सुनिश्चित विधि नहीं होती। आयुवर्ग के आधार पर सीखने तथा सिखाने की प्रक्रिया बदल सकती है। निश्चित पुस्तक पढ़ने तथा अनिश्चित पुस्तक पढ़ने के लिए संस्कृत सीखने की प्रक्रिया बदल जाती है। संस्कृत सिखाने की अनेक विधियाँ प्रचलन में आ  चुका है। सबका समाधान यहाँ प्रस्तुत है।
      निश्चय ही संस्कृत सीखना बहुत ही आनन्दप्रद है। यदि थोड़ा भी संस्कृत आ जाय तो हम इससे बहुत आनन्द ले सकते हैं। जानकारी जुटा सकते हैं । भारतीय ज्ञान परम्परा को ठीक से समझ सकते हैं। जीवन में आने वाले हर संकट का समाधान ढूंढ सकते है। विना अधिक खर्च किये स्वरोजगार कर सकते है। लोगों को रोजगार उपलब्ध करा सकते हैं, आदि। 
भाषा और उसमें निहित ज्ञान दोनों अलग- अलग परन्तु परस्पर संबद्ध है।
आइए, पहले यह स्पष्ट कर लें कि आप संस्कृत में निहित विषयों को जानना चाहते हैं या भाषा? अधिकांश लोग इस भाषा में निहित ज्ञान सम्पदा को ही जानना चाहते हैं। विषयों तक की यात्रा का साधन भाषा है। प्रत्येक भाषा अपने परिवेश को समेटते हुए आगे की यात्रा करती है। अतएव उसमें वहाँ का  इतिहास एवं संस्कृति स्वतः देखी जा सकती है। हम संस्कृत भाषा के माध्यम से संस्कृत ग्रन्थों में लिखे अपार ज्ञान को पा सकते हैं, जिसमें भारतीय इतिहास, आचार, संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। विषयों को समझने के लिए प्रौढ़ भाषा, जबकि व्यवहार में उपयोग के लिए सामान्य संस्कृत की जानकारी चाहिए। इसे बहुत कम समय में सीखा जा सकता है। 
संस्कृत में वाक्य की संरचना
     हम सबसे पहले संक्षेप में इसके वाक्य संरचना के बारे में चर्चा करें । श्लोक, संस्कृत की सबसे पुरानी विधा है। यह पद्यात्मक होता है। आपने सुभाषित का नाम सुना होगा। श्लोकबद्ध नीति वचन या सुभाषित संकेतात्मक होते हैं। शास्त्र ग्रन्थ सूत्रों में कहे गये हैं। शास्त्रों में विभिन्न विषयों को एक सुनिश्चित अनुसाशन में बांधा गया है। आजकल हम गद्य शैली में बोलते हैं।  संस्कृत में लिखित गद्य की वाक्य संरचना, इसमें शब्दों की स्थिति पद्य से भिन्न होती है। परन्तु संस्कृत का गद्य ठीक उस रूप में लिखा नहीं मिलता जैसे कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का गद्य होता है। यहाँ कारक के कारण गद्य के किसी वाक्य को लिखने का कोई सुनिश्चित क्रम नहीं है। सबसे पहले यह तय करें कि आप किस काम के लिए संस्कृत भाषा सीखना चाहते हैं। यदि आप पहले कहे गये में से किसी भी उद्येश्य के लिए संस्कृत सीखना चाहते हैं तो संस्कृत भाषा में शब्द निर्माण की प्रक्रिया एवं इसके वाक्य विन्यास को समझना होगा। बताता चलूँ कि कुछ मूल शब्दों (प्रकृति), प्रत्ययों  (धातु और प्रातिपदिक के अंत में लगने वाले अंश), उपसर्ग तथा निपात के संयोग से संस्कृत में नये शब्द बन जाते हैं । इसके बारे में हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगें।
संस्कृत भाषा का विकासक्रम
हिंदी तथा अन्य भाषाओं की तरह संस्कृत भाषा अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग स्वरूप को धारण करती रही है। कालखण्ड तथा प्रकृति को देखते हुए संस्कृत भाषा के दो स्वरूप हैं-
1- वैदिक संस्कृत 2- लौकिक संस्कृत
वैदिक संस्कृत का व्याकरण और शब्दकोश लौकिक संस्कृत से पृथक् है। वेद से लेकर ब्राह्मण और उपनिषद् की भाषा वैदिक है। 
वाल्मीकि रामायण, पुराण एवं बाद के अन्य साहित्य ग्रंथों की रचना लौकिक संस्कृत में की गई है। लौकिक संस्कृत में रामायण की भाषा सरल जबकि परवर्ती लेखकों की भाषा कठिन होती चली गयी। जैसे रामायण की अपेक्षा श्रीमद्भागवत की भाषा कठिन है। अश्वघोष की अपेक्षा श्रीहर्ष की भाषा कठिन है।
साहित्यिक भाषा बनाम बोलचाल की भाषा
लौकिक संस्कृत का लिखित तथा मौखिक दो स्वरूप हैं। दोनों प्रकार की भाषा में मौलिक अन्तर यह है कि लिखित में व्याकरण का तथा अप्रचलित या प्रौढ भाषा का प्रयोग बहुतायत किया जाता है। इसको सीखने के लिए आपको ज्यादा मेहनत करनी होगी। मौखिक संस्कृत या बोलचाल में प्रयोग आने वाले संस्कृत के लिए कम से कम शब्दों एवं व्याकरण की आवश्यकता है। इसके लिए ज्यादा बोलने के अभ्यास की आवश्यकता है। इसे सीखने की पद्धति भी अलग है। संस्कृत साहित्य को जानने के लिए मौखिक संस्कृत सीखना प्रवेश द्वार हो सकता है।

संस्कृत कैसे सीखें

संस्कृत भाषा को सीखने के लिए अनेक आयाम हो सकते हैं। न्यायसिद्धान्तमुक्तावली-शब्दखंड का यह श्लोक हमेशा याद रखना चाहिए। शब्द के अर्थ को बताने वाली प्रक्रिया को शक्तिग्रह के नाम से कहा गया है। इसमें अनेक साधनों में लोक व्यवहार के द्वारा शब्दों के अर्थ को समझना प्रधान साधन कहा गया है।
            शक्तिग्रहं व्याकरणोपयानकोशाप्ततवाक्याद् व्यवहारतश्च।
            वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यत: सिद्धपादस्य वृद्धा:॥

अर्थात्- 1- व्याकरण, इसके द्वारा शब्दों के लिंग, वचन, पुरूष, शब्दरूप, धातुरूप, प्रत्यय, कारक, सन्धि, समास का ज्ञान करके भाषा सीख सकते हैं। 2- उपमान (व्यक्ति,वस्तु एवं क्रिया आदि का समानार्थी/ विलोम आदि शब्द)  3- कोश  (अनेक प्रकार के शब्द कोश) 4- आप्त वाक्य, ऋषियों/ महापुरूषों द्वारा प्रयुक्त शब्द 5- लोक व्यवहार, संसार की अनेक भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है अतः उनमें संस्कृत भाषा के शब्द पाये जाते हैं। मराठी, बंगाली, हिन्दी भाषाओं में 70 प्रतिशत से अधिक शब्द संस्कृत निष्ठ हैं।  6- वाक्य शेष (सम्पूर्ण वाक्य का भावार्थ) 7- विवृत्ति  (व्याख्या, वाक्य का कथ्य ) और सिद्ध (जान चुके शब्द) पद के द्वारा (अर्थ) का बोध होता है। 
इसीलिए संस्कृत भाषा सीखने के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह प्रतिदिन संस्कृत की पुस्तकों, पत्रिकाओं को पढ़े। संस्कृत में दिये गये व्याख्यान या बातचीत को सुनें।
यहाँ मैं लिखित संस्कृत सीखने हेतु टिप्स दे रहा हूँ।
अध्ययन के सहायक उपकरण--
1. संस्कृत भाषा में लिखे ग्रंथों को पढ़ने के लिए सबसे पहले आपके पास एक शब्दकोश होना चाहिए, ताकि आप संस्कृत का अर्थ जान सकें।
2. संस्कृत एक संश्लिष्ट भाषा है, जिसमें प्रत्येक अक्षर, प्रत्येक पद आपस में जुड़ जाते हैं। आपस में जुड़े शब्दों को कभी-कभी तो पहचाना जा सकता है, परंतु कभी-कभी वह अपने मूल स्वरुप से इतने भिन्न हो जाते हैं कि पहचान करना कठिन होता है। इसके लिए आपको सरल से कठिन की ओर बढ़ना है।
3. प्रारम्भ में आप कक्षा से तक के बच्चों के लिए लिखी गयी संस्कृत की पाठ्य पुस्तकें लें। ये पुस्तकें बहुत अधिक उपयोगी हो सकती है । इसे आद्योपान्त पढ़ें। इसके अभ्यास को ठीक उसी तरह पूरा करें, जैसे कोई बच्चा करता है। अपनी योग्यता का आकलन करते हुए आगे बढ़ें।
4. यदि आप संस्कृत भाषा का उच्चारण करना भी सीखना चाहते हैं तो संस्कृत के स्तोत्रों, गीतों को सुनें तथा वैसा ही उच्चारण करने का अभ्यास भी करें। अब इन्टरनेट पर इस विषय में प्रभूत सामग्री मिलने लगी है। इस ब्लॉग पर सस्वर आलवन्दार स्तोत्र, रघुवंशम् द्वितीय सर्ग जैसे कई माध्यम हैं, जहाँ ध्वनि जोड़ा गया है। मेरे यूट्यूब चैनल पर भी वाल्मीकि रामायण, अनेक संस्कृत गीत तथा स्तोत्रों के पाठ हैं। संस्कृतभाषी ब्लॉग पर Audio books नामक मीनू बटन दिया गया है। इससे अभ्यास करें।
5. बाजार में कई ऐसी पुस्तकें आ चुकी है, जो संस्कृत सीखाने में सहायक है। पुस्तक खरीदते समय यह ध्यान रखें कि उसमें अभ्यास करने की व्यवस्था हो। लेख के अंत में पुस्तकों की सूची उपलब्ध करा दी गयी है। संस्कृत सीखने की सहायक सामग्रियां जैसे- आडियो, विडियो, चित्र पद कोश संस्कृत सीखने के रुचिकर साधन हैं। 10 वर्ष तक के आयुवर्ग के बच्चे इस ओर अधिक आकर्षित होते हैं।
6. रामायण, पुराण या संस्कृत भाषा में प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक, पाक्षिक या दैनिक पत्रिका प्रतिदिन पढ़ें।  इसी ब्लॉग में संस्कृत पत्रिकाओं के नाम एवं पता के लिंक पर जायें।
7. एक ऐसा जानकार व्यक्ति जो आवश्यकता पड़ने पर फोन या अन्य द्वारा आपको मदद कर सके।
8. प्रतिदिन संस्कृत की पुस्तक या पत्रिका के लेख से एक पृष्ठ लिखें।
9. संस्कृत व्याकरण की आरम्भिक जानकारी के लिए संस्कृतभाषी ब्लॉग पर जायें। लेखानुक्रमणी में दिये 16 फरवरी 2019 से 10 अप्रैल 2019 के मध्य के पोस्ट को पढ़ें। इसमें लघुसिद्धान्तकौमुदी का सभी प्रकरण को सरल हिन्दी अनुवाद के साथ उपलब्ध कराया गया है। यह आपके लिए उपयोगी होगा है। 
10. केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, संस्कृतभारती तथा अन्य अनेक संस्थायें पत्राचार द्वारा संस्कृत सिखाने का कोर्स चलाती है, जो दो वर्ष से लेकर 4 वर्ष तक की होती है।
11. केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली देश भर में अनौपचारिक संस्कृत शिक्षण केन्द्र स्थापित किया है। यहाँ प्रत्येक कार्यदिवसों में दो- दो घंटे की कक्षा लगती है। जिसके माध्यम से संस्कृत सीखना आसान है।
12. बोलचाल में प्रयोग होने वाली संस्कृत भाषा को सीखाने के लिए संस्कृतभारती का प्रशिक्षण केन्द्र देश के लगभग प्रत्येक जनपद में स्थापित है। दिल्ली में सालों भर 15-15 दिनों की आवासीय कक्षा सतत संचालित होते रहती है। संस्कृतभारती के प्रान्त कार्यालयों द्वारा वर्ष में एक बार आवासीय संस्कृत प्रशिक्षण शिविर लगाया जाता है,जहाँ आप मात्र 10 दिनों में कार्यसाधक संस्कृत बोलना सीख जाते हैं। संस्कृत सीखने की उपयोगी पुस्तकें तथा अनेक शैक्षणिक गतिविधि भी यहाँ संचालित होते हैं।
13. उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ, वाराणसी में आवासीय संस्कृत प्रशिक्षण शिविर का संचालन करता है। यह ऑनलाइन माध्यम से भी संस्कृत सिखाता है। इसके लिए आप https://www.sanskritsambhashan.com/ इस वेबसाइट पर जाकर अपना पंजीकरण कर सकते हैं।यहाँ आप अपनी सुविधा के अनुसार सीखने के समय का चयन कर सकते हैं। उत्तरांचल आदि राज्यों में स्थापित संस्कृत अकादमी तथा अन्य स्वयंसेवी संस्था भी समय समय पर संस्कृत सीखाने हेतु अल्पकालीन कक्षाओं का संचालन करती है।
14. इस ब्लॉग के HOME बटन पर क्लिक करें। HOME मीनू बटन के निकट ही संस्कृत शिक्षण पाठशाला का मीनू बटन है। इसके सबमीनू में संस्कृत शिक्षण ट्यूटोरियल, सोशल मीडिया द्वारा संस्कृत शिक्षण, संस्कृत शिक्षण पाठशाला के चारों भाग तथा अभ्यास दिये गये हैं। कम्प्यूटर पर यह लेख पढ़ने वाले को इस प्रकार चित्र दिखेगा। 
इसमें आप संस्कृत शिक्षण पाठशाला 1 से पढ़ना आरम्भ करें। यह व्याकरण के माध्यम से संस्कृत सिखाने की विधि है। इसे अपने 30 वर्षों का शैक्षणिक अनुभव के साथ संस्कृत सीखने की सैकड़ों पुस्तकों पढ़ने के बाद तैयार किया गया है। इसके माध्यम से वे व्यक्ति भी संस्कृत भाषा में पारंगत हो सकते हैं, जिन्होंने अपने जावन में कभी भी संस्कृत नहीं सीखा हो। इसमें वर्ण परिचय से आरम्भ करके वाक्य निर्माण करने तक की शिक्षा की गयी है। प्रत्येक पाठ में नियम तथा उाहरण दिये गये हैं। इसके बाद अभ्यास भी दिया गया है।  यहाँ अभ्यास करने लिए प्रत्येक पाठ में लिंक भी जोड़े गये हैं। इसके माध्यम से घर बैठे संस्कृत सीखा जा सकता है। डिजिटल माध्यम द्वारा संस्कृत सीखने का यह सर्वोत्तम मंच है। जो लोग मोबाइल पर संस्कृतभाषी के माध्यम से संस्कृत सीखना चाहते हैं, उन्हें यह ब्लॉग इस तरह दिखेगा।


मोबाइल से लिये गये इस चित्र में आपको Memu  लिखा दिख रहा होगा, जिसके आगे एक ड्राप डाउन बटन दिख रहा है। ब्लॉग पर उपलब्ध सामग्री को पढ़ने के लिए इस बटन के आगे ड्रापडाउन पर क्लिक करने के उपरान्त आपको नीचे दिये गये चित्र के समान दिखने लगता है। इस ब्लॉग की सामग्री पढ़ने अथवा संस्कृत सीखने में असुविधा होने पर 7388 8833 06 पर मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं।


इसे नीचे खिसकाते हुए अन्य लेख को भी देख सकते हैं। यहाँ सम्बन्धित पोस्ट पर क्लिक करके पढ़ा व सीखा जा सकता है।  इसकी सहायता से आप आरम्भिक संस्कृत सीखने से लेकर प्रौढ़ संस्कृत सीख सकते हैं।  यहाँ सन्धि, समास, कारक, सुबन्त और तिङन्त की प्रक्रिया, सुबन्त और तिङन्त का प्रत्यय भी दिये गये हैं। क्रिया को तिङन्त तथा शेष को सुबन्त कहा जाता है। इसको पढ़ने के बाद आपको किसी व्याकरण की पुस्तक की आवश्यकता नहीं होगी। 
नोट--देवनागरी लिपि का ज्ञान होने से इस लिपि में पाठ्यसामग्री तथा पाठ्योपकरण अधिक मात्रा में मिलते है। इंटरनेट का उपयोग करने वाले मित्रों के लिए लेख के अंत में संस्कृत बोलने तथा पढने में मददगार लिंक दिये गये हैं। संस्कृत का शुद्ध उच्चारण सीखने के लिए किसी दोस्त का मदद लें।
संस्कृत पत्रिका या पुस्तक पढ़ना शुरु करें-
अब आपके पास संस्कृत सीखने का सहायक उपकरण मौजूद है। अपना पाठ्यपुस्तक खोलें।
बालकः,बालिका,पुष्पम् आदि शब्दकोष के आगे बढें। फिर कर्ता के साथ क्रिया पदों के प्रयोग का अभ्यास शुरु करें। पिकः कूजति। बालकौ पठतः। तीनों पुरुष तथा तीनों वचन का अभ्यास करें।
अब सर्वनाम के साथ क्रिया का प्रयोग आरम्भ होता है। सः कौशलः पठति( वर्तमान काल ), सा लता गायति, धीरे-धीरे तीनों काल तथा तीनों लिंग के प्रयोग मिलेंगें। एषः बालकः। एषा बालिका अस्ति। एतत् पुष्पम्।
इसके बाद विभक्ति प्रयोग सीखें । जैसे- अहं लेखं लिखामि। सः दूरभाषेण वार्तां करोति। पिता मोहनाय पुस्तकं क्रीणाति। आदि। यहाँ समस्या हर विभक्ति के पदों में परिवर्तन होते रहने की है। हमलोग हिंदी में राम ने कहा, राम का भाई है आदि वाक्य लिखते हैं। यहां राम शब्द में कभी भी परिवर्तन नहीं होता, लेकिन जब हम संस्कृत में किसी विभक्ति का प्रयोग करते हैं तो वहां प्रत्येक पद पर शब्द के स्वरुप में परिवर्तन हो जाता है। हमें यहां कठिनाई होती है। इस परिवर्तन को समझने के लिए हमें विभक्तियों को समझना पड़ेगा।यह विल्कुल आसान है। संस्कृत के शब्दों की संरचना दो विधियों से हुई है। 1. उत्सर्ग अर्थात् सामान्य नियम 2. अपवाद अर्थात् जो सामान्य नियम के अन्तर्गत नहीं आते। सामान्य नियम के अनुसार तीनों वचन तथा सात विभक्ति मिलाकर संस्कृत में सु औ जस् आदि कुल 21 विभक्तियाँ होती है। इस प्रकार पुल्लिंग और स्त्रीलिंग के 21-21 रूप देखने को मिलते है। यदि सम्बोधन को भी जोड़ दिया जाय तो कुल संख्या 24 हो जाएगी। प्रत्येक स्वर वर्ण वाले अक्षरों के स्वरुप में अलग अलग ढंग का परिवर्तन हो जाता है। राम,हरि और पितृ के स्वरुप में अलग अलग परिवर्तन हो जाता है। हिंदी या अन्य भाषाओं में स्त्रीलिंग या पुलिंग शब्द के स्वरूप (विभक्ति) में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होताजबकि संस्कृत में हो जाता है। आपको यदि शब्द रूप के निर्माण प्रक्रिया की थोडी जानकारी हो जाती है तो शब्दरूप याद करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। यदि आपने सामान्य और विशेष नियम को जान लिया तब यह विल्कुल आसान है। राम की तरह प्रत्येक अकार अंत वाले शब्द बनते हैं। इसी प्रकार इकार अंत वाले। कहीं -कहीं थोड़ा परिवर्तन होता है, उसे पुस्तकों को पढ़कर दूर किया जा सकता है। पुस्तकों, पत्रिकाओं को पढ़ते रहने से वे शब्द बार-बार आपके पास आयेंगें और हिन्दी की तरह आप इसका अर्थ समझने लगेगें। मनुष्यस्य शरीरे, मानवस्य शरीरे, मम शरीरे, भ्रातुः अंगे अलग-अलग शब्द वाले वाक्य होने के बाबजूद अर्थ समझने में कठिनाई नहीं होगी। अभ्यास मुख्य है। यही स्थिति क्रिया पदों के भी साथ है। यहां पर एक लकार (काल ) का यूं तो तीनों पुरूष तथा तीनों वचन मिलाकर 9 भेद होते हैं, जबकि आत्मनेपद और परस्मैपद के रूप अलग अलग होते हैं। कभी-कभी प्रत्यय लगने से क्रिया पदों के अनंत भेद हो जाते हैं। आरम्भ में वर्तमान काल, भूत काल, भविष्यत् काल के लिए क्रमशः लट् लकार, लङ् लकार तथा लृट् लकार का अभ्यास करें। पुनः कुछ और लकार। इसे समझने के लिए अभ्यास की आवश्यकता है।
इसके साथ प्रश्न वाचक शब्दों का प्रयोग सीखें। यथा- त्वं किं करोषि। इयं राधा कुत्र गच्छति। विद्यालये अवकाशः कदा भविष्यति। आदि।
संख्यावाची, विशेष्य- विशेषण तथा कुछ अधः, उच्चैः.शनैःयदा-तदा जैसे अव्यय शब्दों के प्रयोग सीख लेने पर आप संस्कृत लिख सकते हैं। आपको वाच्य परिवर्तन भी सीखना चाहिए। इसके कुछ सामान्य नियम है। कर्तृ, कर्म और भाववाच्य में कर्ता के अनुसार क्रिया में परिवर्तन हो जाता है। पठति की जगह पठ्यते आदि। आप इतना कुछ मात्र एक माह में सीख सकते हैं। मूल संस्कृत इतना ही है। प्रतिदिन संस्कृत में लिखी कथा पढनी चाहिए। हितोपदेश जैसे पुस्तक की भाषा सरल है। इस प्रकार की पुस्तक को पढते रहने से शब्दकोष में निरन्तर बृद्धि होती है। शब्दों का संस्कार मस्तिष्क में आकार लेगा।

सन्धि, समास, उपसर्ग तथा तद्धितकृदन्त, णिजन्त, धात्ववयव आदि प्रत्यय से संस्कृत भाषा जटिल हो जाती है। परन्तु जब उसे अलग-अलग कर दिया जाता है तो वही सरल हो जाती है। मूल संस्कृत का अभ्यास करना आसान है। अब आगे-

संस्कृत पुस्तकों को पढने के लिए अब दो अन्य सहायक उपकरण का और सहयोग लें। वह है रेडियो और टेलीविजनDD न्यूज पर संस्कृत में प्रतिदिन समाचार आता है। शनिवार तथा रविवार को DD न्यूज पर वार्तावली कार्यक्रम। रेडियो चैनल पर भी संस्कृत में प्रतिदिन समाचार आता है। आप नियमित सुनना शुरु करें। इससे आपमें शब्द संस्कार बढेंगें। नित्य नये शब्दों से परिचय होगा। चुंकि रेडियो और टेलीविजन पर जो समाचार आता है,उसकी भाषा प्रौढ होती है। वह पहले लिखा जाता है फिर उसे समाचार वाचक पढता है। संस्कृत वाचन अभ्यास सम्बन्धित लेख पढने के लिए लिंक पर चटका लगायें। 
साहित्यिक या प्रौढ संस्कृत भाषा
आखिर संस्कृत में ऐसा क्या होता है कि हम पुस्तक में लिखे शब्दों को डिक्शनरी में ढूंढने की कोशिश करते हैं, परंतु वैसा शब्द डिक्शनरी में बहुत ही कम मिल पाता है। इसका कारण है संधि, समास तथा प्रत्ययों के प्रयोग। अस्य महोदयस्य के स्थान पर महोदयस्यास्य प्रयोग मिलने लगता है। इस प्रकार से संधि और समास के द्वारा बने नये शब्द शब्दकोष में नहीं होते। वहाँ मूल शब्द दिये होते हैं। अब पुस्तकों की सहायता से यह समझने की कोशिश करें कि संधि में दो वर्ण आपस में कैसे मिल जाते हैं? जैसे तस्य अर्थस्य = तस्यार्थस्य, रघुवंशस्यादावेव = रघुवंशस्य आदौ एव इसमें विद्या अलग है आलय अलग है। सन्धि अर्थात् दो शब्दों के मेल को समझने में लगभग 15 दिन लगता है। कभी कभी कुछ अप्रचलित शब्द मेरे शब्द सामने आते हैं, संधि होने के कारण हम उसे नहीं पाते हैं जैसे बटवृक्षः धावति। अब आप सोच रहे होंगे कहीं भला वटवृक्ष दौड़ सकता है। नहीं बट वृक्ष तो दौड ही नहीं सकता। यहां कुछ और खेल हो गया है। बटो ऋक्षः दोनों मिलकर वटवृक्ष शब्द बन गया है। इस प्रकार कई वर्णों को एक साथ जोड़ कर जब नया शब्द बनता है तो हमें कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसके लिए हमें मूल शब्द को पहचानना होगा और उसके बाद संधि की जानकारी करनी होगी। दो सार्थक पद के आपस में मिलने,आपस में जुड़ने को समास कहा जाता है। समास में भी कभी-कभी तो मूल शब्द को पहचानना आसान होता है, लेकिन कहीं कहीं कुछ शब्द या तो बीच के गायब हो जाते या आरंभ के गायब हो जाते हैं। इस प्रकार संस्कृत एक कठिन भाषा के रुप में हमारे सामने उपस्थित हो जाती है। जब तक हम क्रमिक अध्ययन नहीं करेंगे । संस्कृत को समझना हमारे लिए कठिन होगा। अब बाल्मीकि रामायण जैसे सरल काव्य को पढ़ना चाहिए और वहां पर पद परिवर्तन को ध्यान रखना चाहिए। इस प्रकार धीरे- धीरे कर शब्दकोश बढता जाता है और हम व्याकरण के नियमों से परिचित होते जाते हैं। जैसे-जैसे हम व्याकरण तथा शब्दों के समूह से परिचित होते हैं। संस्कृत हमारे लिए सरल हो जाती है। संस्कृत के साथ यही है यह अनेकों संस्कारों से अनेकों प्रक्रियाओं से गुजर कर सामने आती है। यही इसकी खूबी भी है और यही खामी भी। इसमें एक शब्द को कहने के लिए सैकड़ों शब्द मौजूद है। काव्य लिखने वाले साहित्यकार तमाम पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग करते हैं और हमें नए पाठकों को उसे पढने में कठिनाई आने लगती है। एक और समस्या है। जब हम पढ़ना शुरु करते हैं संस्कृत पद्य को पढ़ते हैं। संस्कृत का अधिकांश साहित्य पद्य में लिख है। मुझे उसका अर्थ जल्दी से समझ में नहीं आता, क्योंकि संस्कृत में किसी पद को आगे पीछे कहीं भी रखा जाए उसके अर्थ में परिवर्तन नहीं होता। पद्यकार किसी शब्द को कहीं भी रखकर संधि समास युक्त कर देते हैं। उसे समझना आसान नहीं रह जाता। इसीलिए संस्कृत अध्ययन आरंभ करते समय यह ध्यान रखना चाहिए पद्य के अपेक्षा गद्य को आरंभ में पढ़ा जाए, ताकि हम आसानी से समझ सकें। पुराण,रामायण तथा महाभारत जैसे ऐतिहासिक किंवा धार्मिक पुस्तक पढ़ने के लिए तद्धित तथा भूतकालिक लकारों का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है। यहाँ रावण के लिए पौलस्त्य (पुलस्य का नाती)  शब्द का प्रयोग भी देखने को मिलेगा। तद्धित प्रत्यय यद्यपि अत्यन्त सरल है, फिर भी इसके ज्ञान के विना पौराणिक साहित्य पढ़ने में असफलता मिलेगी।
      संस्कृत में एक अच्छा यह है कि यहां जो भी शब्द है और जिसके लिए प्रयोग हुआ है, वह उस वस्तु के गुण और धर्म को देखकर नामकरण होता है। शब्द का अर्थ जानते ही उस वस्तु के बारे में सारी जानकारी मिल जाता है। पुनः उस वस्तु को समझने के लिए किसी अलग से व्याख्या की आवश्यकता नहीं पड़ती। यही अच्छाई है। लेकिन यदि किसी में समान गुण धर्म हो तो उसके लिए भी वही शब्द प्रयोग में आते हैं। प्रसंग के अनुसार हमें इसका अर्थ समझना पड़ता है। जैसे जो दो बार जन्म लेता है, उसे द्विज कहते हैं। यह ब्राह्मण के लिए और चिड़ियों के लिए भी प्रयुक्त होता है। हिन्दी की तरह संस्कृत में व्यक्ति या वस्तु के आधार पर लिंक निर्धारित नहीं होते,अपितु प्रत्येक शब्द के लिए लिंग निर्धारित है। जैसे स्त्रीलिंग शब्द पत्नी का पर्यायवाची दारा है, परन्तु यह शब्द पुलिंग है। इस प्रकार हम आपसे चर्चा करते रहेंगे और सलाह देते रहेंगे कि संस्कृत को आसानी से कैसे समझा जाए। पढा जाए। इसके वाक्य विन्यास कैसे होते हैं। शब्दों का निर्माण कैसे होता है? यदि यह समझ में आ गया तो समझिए संस्कृत भाषा आ गयी .
संस्कृत सीखने के लिए अधोलिखित ऑनलाइन लिंक उपयोगी है-
  संस्कृतशिक्षणम्
sanskrit from home

इन पुस्तकों में से जो भी पुस्तकें उपलब्ध हो सके, इनसे संस्कृत सीखें।

प्रकाशक/लेखक                                   पुस्तक नाम
1- राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली             दीक्षा
2- उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ           सरल संस्कृतम्
3- संस्कृतभारती                                      सरला,सुगमा   
5- इन्द्रपति उपाध्याय                               संस्कृत सुबोध               
6- उमेश चन्द्र पाण्डेय                               संस्कृत रचना                  
7- ए0 0 मैग्डोनल                                 संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका     
8- कपिलदेव द्विवेदी                                 प्रौढ़ रचनानुवाद कौमुदी      
9- कपिलदेव द्विवेदी                                 संस्कृत शिक्षा                
10- कमलाकान्त मिश्र                              संस्कृत गद्य मन्दाकिनी           
11- कम्भम्पाटि साम्बशिवमूर्ति                     संस्कृत शिक्षणम्             
12- कृष्णकान्त झा                                   सन्धि प्रभा                   
13- के0 एस0 पी0 शास्त्री                           संस्कृत दीपिका                
14- गी0 भू0 रामकृष्ण मोरेश्वर                    माला संस्कृत येते गमक दुसरे   
15- चक्रधर नौटियाल                               नवीन अनुवाद चंद्रिका          
16- चक्रधर नौटियाल                               बृहद् अनुवाद चन्द्रिका         
17- जगन्नाथ वेदालंकार                             सरल संस्कृतसरणिः             
18- जयन्तकृष्ण हरिकृष्ण दवे                      सरल संस्कृत शिक्षक            
19- जयमन्त मिश्र                                    संस्कृत व्याकरणोदयः          
20- अरविन्द आन्ताराष्ट्रिय शिक्षा केन्द्र            संस्कृतं भाषामहै                     
21- लोकभाषा प्रचार समिति, पुरी               संस्कृत शब्दकोषः            
22- भागीरथि नन्दः                                  विलक्षणा संस्कृतमार्गदर्शिका   
23- भि0 वेलणकर                                   संस्कृत रचना                  
24- यदुनन्दन मिश्र                                   अनुवाद चन्द्रिका               
25- रमाकान्त त्रिपाठी                               अनुवाद रत्नाकरः                       
26- रवीन्द्र कुमार पण्डा                             संलापसरणिः                  
27- राकेश शास्त्री                                    सुगम संस्कृत व्याकरण          
28- राजाराम दामोदर देसाई                       संस्कृत प्रवेशः               
29- राम बालक शास्त्री                              वाणी वल्लरी                  
30- राम शास्त्री                                       संस्कृत शिक्षण सरणी         
31- रामकृष्ण मोरेश्वर धर्माधिकारीमला          संस्कृत येते (मराठी भाषी के लिए )              
32- रामचन्द्र काले                                   हायर संस्कृत ग्रामर            
33- रामजियावन पाण्डेय                           व्यावहारिक संस्कृतम्
            (पत्र,समाचार,कार्यालय टिप्पणी,प्रारूपण आदि लिखने हेतु)                     
34- रामदेव त्रिपाठी                                 संस्कृत शिक्षिका              
35- रामलखन शर्मा                                  संस्कृत सुबोध               
36- वाचस्पति द्विवेदी                                संस्कृत शिक्षण विधि                  
37- वात्स्यायन धर्मनाथ शर्मा                       बिना रटे संस्कृत व्याकरण बोध
38- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          कौत्सस्य गुरुदक्षिणा           
39- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          दो मास में संस्कृत           
40-वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                           बाल कवितावलिः                
41- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          बाल निबन्ध माला              
42- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          बाल संस्कृतम्                 
43- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          बालनाटकम्                    
44- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          भारतराष्ट्रगीतम्               
45- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          संस्कृत क्यों पढ़ें ? कैसे पढें
46- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          संस्कृत गौरव गानम्           
47- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          संस्कृत प्रहसनम्               
48- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          सरल संस्कृत गद्य संग्रह          
49- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          सरल संस्कृत पद्य संग्रह          
50- वासुदेव द्विवेदी शास्त्री                          सुगम शब्द रूपावलिः         
51- वेणीमाधव शास्त्री जोशी                       बाल संस्कृत सारिका            
52- शिवदत्त शुक्ल                                   संस्कृत अनुवाद प्रवेशिका      
53- शैलेजा पाण्डेय                                  संस्कृत सुबोध               
54- श्यामचन्द्र                                        संस्कृत व्याकरण सुप्रभातम्    
55- श्रीपाद दामोदर सातवलेकर                   संस्कृत पाठ माला              
56- श्रीपाद दामोदर सातवलेकर                  संस्कृत स्वंय शिक्षक

 नोट-  संस्कृत सीखने के लिए संस्कृत शिक्षण पाठशाला  पर क्लिक करें।          
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गया तीर्थ की ऐतिहासिकता

हिंदुओं के अनेक प्रकार के तीर्थ है। ब्रह्म पुराण के अनुसार तीर्थों चार प्रकार के होते हैं 1- ईश्वर द्वारा उत्पन्न 2- असुर से सम्बन्धित 3- ऋषियों से सम्बन्धित 4- राजाओं (मनुष्यों) द्वारा निर्मित। गया के तीर्थों का संबंध मृत मानवों अर्थात् पितरों के साथ है। गया एक ऐसा तीर्थ है, जहां लोग अपने पूर्वजों के मृत्यु का पर्व मनाने जाते हैं। गया पितृतीर्थ है। इस तीर्थ का संबंध मानवों के अतिरिक्त दानवों तथा देवताओं से भी रहा है। यह अत्यंत प्राचीन तीर्थ है। ऋग्वेद में सर्वप्रथम इसके बारे में संकेत प्राप्त होता है। ऋग्वेद के 2 सूक्तों के रचयिता प्लति के पुत्र गय थे। महाभारत तथा वायु पुराण में जिस गयासुर का वर्णन प्राप्त होता है, उसका मूल उत्स अथर्ववेद है। यहाँ असित एवं कश्यप के साथ गय नामक एक व्यक्ति वर्णित है। गय यहां पर ऐंद्रजालिक के रूप में वर्णित है। चुंकि असुर इंद्रजाल करने में सिद्धहस्त थे, अतः परवर्ती रचनाकारों ने गय को असुर (ऐंद्रजालिक) मानते हुए कथा को विस्तार दे दिया। और्णनाभ जो बुद्ध के पूर्ववर्ती थे ने इदम् विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् के त्रेधा शब्द का अर्थ समारोहण,विष्णुपद एवं गयशीर्ष किया है। गयशीर्ष शब्द की चर्चा महाभारत के वनपर्व, विष्णुधर्मसूत्र, विष्णु पुराण तथा महाभारत में प्राप्त होता है। नारदीय पुराण में भी गयशीर्ष की चर्चा प्राप्त होती है। गयशीर्ष का नाम वनपर्व 87/ 11 एवं 95/9, विष्णु धर्मसूत्र 85/4 विष्णु पुराण 22/20 तथा महावग्ग 1/21/1 में आया है। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में राजा गय का राज्य गया के चारों ओर था ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में आया है कि वह राजगृह के राजा समुद्रविजय का पुत्र था और ग्यारहवां चक्रवर्ती हुआ। अश्वघोष के बुद्धचरितम् में ऋषि गय के आश्रम में बुद्ध का आना तथा उस संत ने निरंजना नदी के पुनीत तट पर अपना निवास बनाया और पुनः वह गया के कश्यप के आश्रम में, जो उरुबिल्व कहलाता था, का प्रसंग प्राप्त होता है। इस ग्रंथ में यह भी आया है कि वहां धर्माटवी भी थी, जहां 700 जटिल रहते थे। उन्हें बुद्ध ने निर्माण प्राप्ति में सहायता दी थी। विष्णु धर्मसूत्र में श्राद्ध के लिए विष्णुपद पवित्र स्थल कहा गया है।पद्म पुराण आदि 38/2-21, गरूड 1 अध्याय 82-86 आदि में गया के विषय में अनेक उद्धरण एवं कखानक प्राप्त होते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि पौराणिक काल आते आते वेद की एक ऋचा किस प्रकार एक कथानक के रूप ले लेती है। संस्कृत का ग्रन्थ धार्मिक पर्यटन (तीर्थ) के माध्यम से किस प्रकार अर्थव्यवस्था को रप्तार देता है। भारत की एकता और अखण्डता में इसका कितना अहम योगदान है। यह धर्म के फलक को भी विस्तार देता है। पवित्र नदियों में स्नान का भी उतना ही महत्व है,जितना कि विशाल द्रव्य खर्च कर होने वाले यज्ञ यागादि का। ये तीर्थ विना भेदभाव के सभी के लिए उपलब्ध थे। अस्तु।

गया ईसा के कई शताब्दियों पूर्व एक समृद्धशाली नगर था। फाहियान के भारत आगमन के समय (चौथी शताब्दी) में यह नगर नष्टप्राय था, किंतु सातवीं शताब्दी में जब ह्वेनसांग यहां आया तो इसे भरा पूरा देखा। व्हेनसांग के अनुसार यहां ब्राह्मणों के 1000 कुल थे। प्राचीन पाली ग्रंथों एवं ललितविस्तर में भी गया के मंदिरों का उल्लेख प्राप्त होता है। कुल मिलाकर इतना स्पष्ट है कि बुद्ध के आविर्भाव के पूर्व गया तीर्थ अपने अस्तित्व में आ चुका था।
हजारों वर्षों से गया तीर्थ हिंदुओं के आस्था का केन्द्र रहा है। गया के बारे में विपुल मात्रा में साहित्य भी प्राप्त होते हैं। आज संपूर्ण गया 15 किलोमीटर में फैला है। इसके पूर्व में महानदी फल्गु अवस्थित है। यह सुखी नदी है। गड्ढा खोदकर लोग इसमें से जल प्राप्त करते हैं। इसका संबंध गायबाल जाति के लोगों से तथा गयासुर से भी जोड़ा जाता है। वायु पुराण के 106 अध्याय में इस नगर का नाम तथा इसके उत्पत्ति की कहानी प्राप्त होती है। गय नामक असुर से पीड़ित देवगन अपनी रक्षा हेतु ब्रह्मा के पास जाते हैं। ब्रह्मा उन्हें लेकर शिव के पास गये। शिव ने उन्हें विष्णु के पास जाने का सुझाव दिया। ब्रह्मा तथा शिव ने मिलकर विष्णु की स्तुति की। विष्णु प्रकट होकर सभी देवों से कहे कि आप लोग गयासुर के पास चलें। विष्णु ने गयासुर के कठिन तप का कारण पूछा गया से वरदान मांगा कि वह देवताओं, ऋषि तथा मंत्रों से भी अधिक पवित्र हो जाए। देवों ने तो अस्तु कहा और स्वर्ग चले गए। इस प्रकार एक लंबी कथा वहां प्राप्त होती है। गया के प्रमुख स्थान है- विष्णुपद,  बोधिवृक्ष, प्रेतशिला, फाल्गु नदी
गया के तीर्थ की संख्या तो बहुत अधिक है परंतु सभी तीर्थयात्री सभी तीर्थों की यात्रा नहीं करते हैं बल्कि इन्हीं तीन स्थलों की यात्रा करते हैं। विष्णुपद में भगवान विष्णु के पदचिन्ह स्थापित है। जिसका आकार लगभग 16 इंच लंबा है। इस मंदिर में सभी हिंदू मतावलंबी दर्शन करने जाते हैं। यहां कोई 45 वेदियां हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए पढें-वायु पुराण (गया माहात्म्य)
प्राचीन ग्रन्थ जिसमें गया तीर्थ का वर्णन प्राप्त होता है-
1- तीर्थचिन्तामणि
2- तीर्थप्रकाश
3- तीर्थेन्दु शेखर
4- त्रिस्थली सेतु
5- त्रिस्थली सेतु सार संग्रह
गया श्राद्ध के लिए लिखित प्राचीन ग्रन्थ
ग्रन्थ ग्रन्थकार
1- गयाश्राद्धपद्धति ---- वाचस्पति
2- तीर्थयात्रातत्व --------- रघुनन्दन
3- गयाश्राद्धपद्धति ---------- माधव के पुत्र रघुनाथ
4- गयाश्राद्धविधि ---------- वाचस्पति


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