व्याकरण शास्त्र के आचार्यों की परम्परा तथा परिचय

नोट- मैंने फेसबुक पर प्रति शनिवार एवं रविवार को संस्कृतशास्त्रालोचनम् व्याख्यानमाला संचालित कराया है। व्याख्यानमाला का आरंभ व्याकरणशास्त्र परम्परा से हुआ,क्योंकि यह सभी शास्त्रों का मुख है। श्रोताओं के आग्रह पर यहाँ व्याख्यान के विषय को व्यवस्थित कर लिखा रहा हूँ।

व्याकरण शास्त्र के प्राचीन आचार्य-

व्याकरण शास्त्र का मूल आधार वेद है। वेद में व्याकरण के स्वरूप का वर्णन प्राप्त होता है।
          चत्वारि श्रृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
          त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवा मर्त्याम् आविवेश ।। (ऋग्वेद 4:58:3)
इस मंत्र में शब्द को वृषभ नाम से कहा गया है। इस वृषभ के स्वरूप का लर्णन किया गया है-  
नामआख्यातउपसर्गनिपात ये चार सींग,  भूतकालवर्तमानकालभविष्यकाल ये तीन पैर, सुप् (सुजस् आदि)तिङ् (तिप्तस्झि आदि) दो सींग (शीर्षे) प्रथमादि्वतीयातृतीयाचतुर्थीपंचमीषष्ठीसप्तमी ये सातों विभक्तियां इसके हाथ हैं, उरस्कण्ठःशिरस् इन तीन स्थानों से यह बंधा हुआ आबाज कर रहा है।
रामायण के किष्किन्धा कांड में राम हनुमान के बारे में लक्ष्मण से कहते हैं-  
              नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
              बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्। किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक 29
निश्चित रुप से इसने सम्पूर्ण व्याकरण को भी सुना है,क्योंकि इसने बहुत बोला परन्तु कहीं भी व्याकरण की दृष्टि से एक भी अशुद्धि नहीं हुई।
महाभाष्य में पतञ्जलि ने भी व्याकरणशास्त्र परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा है कि प्राचीन काल में संस्कार के बाद ब्राह्मण व्याकरण पढ़ते थे।
         "पुराकल्प एतदासीत् , संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं स्मधीयते ।" (महाभाष्य---1.1.1)
प्रश्न यह उठता है कि जब यह व्याकरण इतना प्राचीन है तो इसे सर्वप्रथम किसको किसने पढ़ाया? इसका उत्तर ऋक्तन्त्र 1.4 में मिलता है। व्याकरण के सर्व प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा थे।  ब्रह्मा वृहस्पतये प्रोवाच, वृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भारद्वाजो ऋषिभ्यः। महाभाष्य के पस्पशाह्निक में शब्दों के बारे में प्रतिपादन करते हुए पतञ्जलि ने पुनः व्याकरणशास्त्र परम्परा का उल्लेख किया- वृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दपारायणं प्रोवाच नान्तं जगाम, वृहस्पतिश्च प्रवक्ता, इन्द्रचाध्येता दिव्यं वर्षसहस्रमध्ययनकालो न चान्तं जगाम इति । इस परम्परा में अनेक आचार्यों का उल्लेख हुआ है। यह लगभग 10 हजार वर्ष की परम्परा है।
भरद्वाज-
भरद्वाज अंगिरस वृहस्पति के पुत्र तथा इन्द्र के शिष्य थे। युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार ये विक्रम सं. से 9300 वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए। भरद्वाज काशी के राजा दिवोदास का पुत्र प्रतर्दन के पुरोहित थे।
भागुरि-  
भागुरि नाम का उल्लेख पाणिनि तथा पतंजलि ने किया है। न्यासकार ने इनके एक मत का उल्लेख किया है।
             वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः।
             आपं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा।।
पौष्करसादि-
महाभाष्यकारकार पतंजलि ने चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम् में पुष्करसादि के पुत्र पौष्करसादि के मत का उल्लेख किया है।
काशकृत्स्न-
पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्, आपिशलम्, काशकृत्स्नम् इस महाभाष्य के वचन के अनुसार तथा वोपदेव कृत कविकल्पद्रुम के अनुसार काशकृत्स्न नामक वैयाकरण का पता चलता है। वस्तुतः महाभाष्य व्याकरण ज्ञान का मूल ऐतिह्य स्रोत है।
                 इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नाऽपिशली शाकटायनः ।
                 पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः।।
शन्तनु- 
सम्प्रति इनके द्वारा रचित फिट् सूत्र प्राप्त होता है। शन्तनु द्वारा विरचित होने कारण इसे शान्तनव व्याकरण भी कहा जाता हैं। प्रातिपदिक अर्थात् मूल शब्द को फिट् नाम से कहा गया। इन सूत्रों में प्रातिपदिक के स्वरों (उदात्त, अनुदात्त, स्वरित) का विधान किया गया है ।
गार्ग्य- अष्टाध्यायी में पाणिनि ने इस ऋषि के मत का उल्लेख अनेक सूत्रों में किया है।अड्गार्ग्यगालवयोः, ओतो गार्ग्यस्य आदि।

व्याडि-

आचार्य व्याडि प्राचीन वैयाकरण है। पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि व्याडि ने 'संग्रह' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की ।  आचार्य शौनक ने ऋक् प्रातिशाख्य में इनके अनेक मत को उद्धृत किया है । इससे सिद्ध होता है कि व्याडि शौनक के पूर्ववर्ती थे। ऋक् प्रातिशाख्य में ही शौनक ने शाकल्य और गार्ग्य के साथ ही व्याडि का भी उल्लेख किया है। महाभाष्य (६-२-३६) में आपिशलि और पाणिनि के शिष्यों के साथ व्याडि के शिष्यों का भी उल्लेख है। काशिका से व्याडि के दाक्षायण और दाक्षि है इन अन्य दो नाम का पता चलता है । इनकी बहिन दाक्षी थी। पाणिनि दाक्षीपुत्र होने से इनकी बहिन के पुत्र है। 'संग्रह' का प्रतिपाद्य विषय व्याकरण दर्शन ग्रन्थ था। इसमें व्याकरण का दार्शनिक विवेचन था। पतंजलि (महा० १-२-६४ ) में व्याडि को द्रव्यपदार्थवादी बताया है। 'द्रव्याभिधान व्याडिः' । नागेश और वाक्यपदीय के टीकाकार पुष्यराज ने संग्रह ग्रन्थ का परिमाण एक लाख श्लोक माना है ।  

आपिशलि –

पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी में जिन 10 आचार्यों के नाम का उलेलेख किया है, उनमें आपिशलि मुख्य हैं। आपिशलि बहुत प्रसिद्ध वैयाकरण थे, अतः उस समय व्याकरण की पाठशालाओं को आपिशलि शाला कहते थे। पदमंजरीकार हरदत्त के लेख से ज्ञात होता है कि पाणिनि से ठीक पहले आपिशलि का ही व्याकरण प्रचलित था। महाभाष्य (४-१-१४) से ज्ञात होता है कि कात्यायन और पतंजलि के समय में भी आपिशल व्याकरण का पर्याप्त प्रचार था। पाणिनि ने वा सुप्यापिशलेः सूत्र में आचार्य आपिशलि का उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त महाभाष्य ( ४-२-४५ ) मे आपिशलि का मत प्रमाण के रूप में उद्धृत किया गया है। वामन, कैयट आदि ने इसके अनेक सूत्र उद्धृत किए हैं। पाणिनि से कुछ वर्ष ही प्राचीन ज्ञात होते हैं।

पाणिनीय व्याकरण का प्रधान उपजीन्य ग्रन्थ आपिशल व्याकरण है । पाणिनि ने इससे अनेक संज्ञाएँ, प्रत्यय प्रत्याहार आदि लिए हैं। इसके व्याकरण में भी ८ अध्याय थे । इसके कुछ सूत्र उदाहरणार्थ ये हैं - १. विभक्त्यन्तं पदम्, २. मन्यकर्मण्यनादरे उपमाने विभाषा प्राणिषु, ३. करोतेश्च ४.  भिदेश्च ।

व्याकरण ग्रन्थ के अतिरिक्त इन्होंने अन्य ग्रन्थ ये हैं :-धातुपाठ, गण पाठ, उणादिसूत्र, आपिशलशिक्षा तथा अक्षरतन्त्र की रचना की थी।

इस प्रकार पाणिनि ने अपने ग्रन्थ अष्टाध्यायी में शाकल्य, काश्यप, चाक्रवर्मण, शाकटायन,शाकल्य आदि अनेक वैयाकरण आचार्यों के मत का उल्लेख किया है।
नोट- इस अधोलिखित भाग का सम्पादन तथा विस्तार करना शेष है।

व्याकरण ग्रन्थ परम्परा                                       

लेखक                            समय                             ग्रन्थ का नाम
पाणिनि                         2000 वर्ष पूर्व               अष्टाध्यायी
पाणिनि ने अष्टाध्यायी में श्रवण और यवन दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। गणतन्त्र महोदधि के निम्न व्युत्पत्ति से सिद्ध होता है कि पाणिनि का जन्म शालातुरीय नामक गाँव में हुआ था । ( शालातुरो नाम ग्रामः सोऽभिजनोऽस्यास्तीति शालातुरीयः, तत्र भवान् पाणिनिः ) जो अभी पाकिस्तान में लाहौर के नाम से प्रसिद्ध हैं । पाणिनि के माता का नाम दाक्षी और पिता का नाम पाणि था । इनके गुरु का नाम उपवर्षाचार्य जो नन्दराज के राज्यकाल में बिहार राज्य में स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध विद्वान् माने जाते थे। अध्ययनावस्था में ही पाणिनि ने अपनी तपस्या से भगवान् शङ्कर को प्रसन्न कर के उन के आदेश से गुरु के आश्रम में ही (पटना में) अष्टाध्यायी सूत्रप्राठ आदि की रचना की थी, इसलिए आचार्यों ने कहा भी हैंअक्षरसमाम्नायमधिगम्यमद्देश्वरात् । कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ॥ युधिष्ठिर मीमांसक ने व्याकरण शास्त्र का इतिहास में विक्रम से लगभग २८०० वर्ष प्राचीन सिद्ध किया है।

कात्यायन                      3000  

कात्यायन और पाणिनि तो समकालीन ही माने जाते हैं। पूर्व आचार्यो ने कात्यायन को महर्षि याज्ञवल्क्य के पुत्र माना है। कात्यायन स्मृतिकार और वार्तिककार दोनों हैं, "प्रियतद्धिताः दाक्षिणात्याः” महाभाष्य के अनुसार यह सिद्ध होता है कि कात्यायन दाक्षिणात्य थे ।

वार्तिककारों में कात्यायन सब से श्रेष्ठ हुए। और निम्न लिखित वार्तिक लक्षणों से सर्वथा पूर्ण है उनका वार्तिक –

उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते ।

तं ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुवर्तिकज्ञा मनीषिणः ॥

कात्यायन का वार्तिक पाणिनि व्याकरण का एक महत्त्वपूर्ण अङ्ग हैक्योंकि वार्तिक विना पाणिनि व्याकरण अधूरा रह जातावार्तिक इस व्याकरण में लिखा गया जिस के कारण इस व्याकरण के आलोक में दूसरा व्याकरण पनप नहीं रहा है। महामुनि कात्यायन का ही दूसरा नाम वररुचि है। ये स्मृतिकार और वार्तिककार के साथ-साथ महाकवि भी थे। इन के 'स्वर्गारोहणनामक काव्य की प्रशंसा अनेक ग्रन्थों में भी की गयी है।

पतञ्जलि

शेषावतार भगवान् पतञ्जलि द्वारा विरचित व्याकरण महाभाष्य की सभी ग्रन्थों में प्राथमिकता हैसभी व्याकरण इसके सामने घुटना टेक देता है। व्याकरण शास्त्र ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण वाङ्मय का यह उदधि है। वाक्यपदीयकार भर्तृहरि ने भी लिखा है कृतोऽथ पतञ्जलिना गुरुणा तीर्थदशिता । सर्वेषां न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धनम् ॥ भगवान् पतञ्जलि द्वारा विरचित तीन प्रमुख ग्रन्थ है -

१ पातञ्जलयोगसूत्रम् ।

२ व्याकरणमहाभाष्यम् ।

३ चरकसंहिता । जैसा कि कैयट ने महाभाष्य की टीका के मङ्गलाचरण में लिखा है 

योगेन चितस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन ।

योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि ।

आचार्यों के कथनानुसार यह सिद्ध होता है कि पाणिनि और कात्यायन उपवर्षाचार्य नामक एक ही गुरु के दोनों शिष्य थे । अध्ययन के समय कात्यायन की बुद्धि अति प्रखर थीकात्यायन के सामने पाणिनि हतप्रभ हो जाया करते थे। अतः पाणिनि प्रयाग में अक्षय वट के नीचे जहाँ सनक सनन्दन आदि ऋषिगण तप करते थेवहीं जाकर तपस्या करने लगे । इनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर नटराज भगवान् शङ्कर ने ताण्डव नृत्य करते हुए चौदहवार डमरू बजाकर तपस्त्रियों का मनोकामना को सिद्ध किया। इसका प्रमाण नन्दिकेश्वर विरचित काशिका में लिखा गया हैजो श्लोक से मिलता है।

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम् ।

उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धा नैतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥

इन्हीं चौदह माहेश्वर सूत्रों के आधार पर पाणिनि ने व्याकरण की रचना की है । पाणिनि द्वारा विरचित वैयाकरण ( अष्टाध्यायी ) सिद्धान्त कौमुदी में छुटे हुए अंर्शों को पुनः वार्तिक बना कर पूरा किया

उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते ।

तं ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुः प्राज्ञया यन्मनीषिणः ॥

इस लोकोक्ति के अनुसार पाणिनि और कात्यायन दोनों ने आवेश आकर परस्पर शाप के कारण त्रयोदशी तिथि को शिवलोक प्रस्थान कर गये । इसलिए त्रयोदशी तिथि को व्याकरण का अध्यय न करना निषेध माना जाने लगा । पाणिनि तथा कात्यायन के निधन के बाद पाणिनि व्याकरण शनैः शनैः लुप्त होने लगा और मुकुटाचार्य ने एक नये ही व्याकरण की रचना करने लगे । साक्षात् शङ्कर अपने डमरू से निकले ध्वनि को लुप्त नहीं होने देना चाहते थेक्योंकि उनका अक्षर समाम्नाय अतिप्रिय है। पाणिनि व्याकरण को नष्ट होते आशुतोष भगवान् शङ्कर ने शेषशायी भगवान् विष्णु से प्रार्थना की कि शेषनाग स्वतः पाणिनि व्याकरण को पल्लवित एवं पुष्पित रखने के लिए भूतल पर 'चिदम्बरम्में अवतार ग्रहण करें। चिदम्बरम् प्रदेश में उस समय गोणिका नाम की महाशक्ति ने तीव्र बुद्धि वाले पुत्र की कामना से भगवान् शङ्कर की आराधना कर रही थी। एक दिन तपस्विनी माता गोणिका भगवान् भास्कर को अर्घ्य दे रही थी कि अञ्जलि में भगवान् शेष के स्वरूप में अवतरित हुए। सर्प के रूप में उन्हें देखकर माता गोणिका घवरा कर पूछा गोणिका-को भवान् प्रश्न:- शेषः– सप्पोऽहम् गोणिका– रेफः क गतः शेषः त्वयाऽहृतः । प्रश्नों के उत्तर को सुन कर माता गोणिका शेषरूप भगवान् को हँसते. हुए बालक के रूप में पाया और उसी दिन उसका नाम पतञ्जलि रख दिया गया। कुछ दिनों के बाद भगवान् शङ्कर की कृपा से पतञ्जलि व्याकरण शास्त्र में पारङ्गत हो गये और प्रतिदिन हजारों की संख्या में शिष्यगण आ आकर उनसे पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन करने लगे। 

चन्द्रगोभि                      12000 पू0                चान्द्रव्याकरण
क्षपणक                          विक्रम के एक शती में       उणादि की व्याख्या लिखा
भर्तृहरि                          4 शती                           वाक्यपदीप
देवनन्दी/जिनेन्द्र              5 3700 सूत्र                  जैनेन्द्र व्याकरण का औदीच्य प्राच्य पाठ मिलता है।
भोजदेव                         सं01075                      सरस्वतीकण्ठाभरण 6400 सूत्र
दयापालमुनि                  1082                           रूपसिद्वि शाकटायनव्याकरण नवीनी
वर्धमान                         1120                           गणरत्नमहोदधि
लंकास्थ बौद्व धर्मकीर्ति     1140                           रूपावतार
हेमचन्द्रसूरि       (जैनावर्ष) 1145                          सिद्वहैमशब्दानुशासन इस पर स्वोपज्ञा टीका‘ 6000
श्लोेक
क्रमदीश्वर                                                          संक्षिप्तसार
नरेन्द्राचार्य                     1250                           सारस्वत व्याकरण अनुभूतिस्वरूप की टीका सारस्वतप्रक्रिया
बोपदेव                         1325                           मुग्धबोधव्याकरण

पाणिनि -          
गुणरत्नमहोदधि में वर्धमान
पतंजलि इह पुष्यमित्रं याजयामः
टीका                             परम्परा                         
रामचन्दाचार्य                1450वि0                     प्रक्रिया कौमुदी
भट्टोजि दीक्षित               1570-1650                 वैयाकरण सिद्वान्त कौमुदी
ज्ञानेन्द्र सरस्वती             1551                           तत्वबोधिनी
जयादित्यवामन                                                  काशिका
दयानन्द सरस्वती                                               अष्टाध्यायी भाष्य कृत 30 आचार्य

कैयट                 -                        प्रदीप
अष्टाध्यायी के वृत्तिकार- व्याडि, कुणिः, माथुरः
वार्तिकभाष्यकार- हेलाराज- वार्तिकोन्मेष, राघवसूरि
व्याकरण के भाग
उणादि सूत्र, गणपाठ, धातुपाठ, शब्दानुशासन (खिलपाठ) परिभाषापाठ, फिट्सूत्र
व्याकरण के दर्शन ग्रन्थ
वाक्यपदीय   -     वृषभदेव ने स्वोपज्ञ टीका लिखी
पुष्यराज - द्वितीय काण्ड पर टीका
हेलाचार्य तीनों पर लिखा परन्तु तृतीय पर उपलब्ध
मण्डन मिश्र     -   स्फोटसिद्वि
भरत मिश्र            -          स्फोटसिद्वि त्रिवेन्द्रम से प्रकाशित
कौण्डभट्ट           -            वैयाकरण भूषण सार
नागेश भट्ट   -       वैयाकरण सिद्वान्त मंजूषा
आधुनिक गुरूशिष्य परम्परा
गंगाराम त्रिपाठी
तरानाथ तर्क वाचस्पति
रामयश  त्रिपाठी             1884
गोपाल शास्त्री (त्रिपाठी) दर्शन केसरी
युधिष्ठिर मीमांसक

संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थों को पुनः इस प्रकार से देखें-

अष्टाध्यायी पाणिनिः

वार्तिकम् वररुचिः (कात्यायनः)

महाभाष्यम् पतञ्जलिः

        1.    प्रदीपः कैयटः (महाभाष्यव्याख्यानम्)

        2.   उद्योतः नागेशः (महाभाष्यव्याख्यानम्)

सूत्रक्रमेण व्याख्यानम्

काशिका वामनः, जयादित्यः

        1.   न्यासः जिनेन्द्रबुद्धिः (काशिकाव्याख्यानम्)

        2.   पदमञ्जरी हरदत्तः (काशिकाव्याख्यानम्)

शब्दकौस्तुभः - भट्टोजिदीक्षितः

 

प्रक्रियाक्रमेण व्याख्यानम्

प्रक्रियाकौमुदी रामचन्द्राचार्यः

          1. प्रसादः विट्ठलाचार्यः (व्याख्यानम्)

सिद्धान्तकौमुदी भट्टोजिदीक्षितः

          1. बालमनोरमा वासुदेवदीक्षितः (सिद्धान्तकौमुदीव्याख्यानम्)

          2.  तत्त्वबोधिनी ज्ञानेन्द्रसरस्वती (सिद्धान्तकौमुदीव्याख्यानम्)

          3.  प्रौढमनोरमा भट्टोजिदीक्षितः सिद्धान्त (कौमुदीव्याख्यानम्)

4. लघुमञ्जूषा, परमलघुमञ्जूषा  - नागेशभट्टः

          ()   बृहच्छब्दरत्नम्, लघुशब्दरत्नम् हरिदीक्षितः (भट्टोजिदीक्षितस्य पौत्रः, नागेशभट्टस्य अयं ग्रन्थः इति केचित्)

          ()   रत्नप्रभा सभापत्युपाध्यायः

          ()   सरला नेनेपण्डितगोपालशास्त्री

         ()   प्रभा भाण्डारिमाधवशास्त्री

          () बृहच्छन्देन्दुशेखरः, लघुशब्देन्दुशेखरः नागेशभट्टः (व्याख्यानम्, स्वतन्त्रविचाराश्च । भट्टोजिदीक्षितानां पौत्रस्य शिष्यः)

                           i.   चन्द्रकला भैरवमिश्रः (शेखरग्रन्थस्य व्याख्यानम्)

                           ii.   चिदस्थिमाला पायगुण्डेवैद्यनाथः (शेखरग्रन्थस्य व्याख्यानम्)

                           iii.   दीपकः नित्यानन्दपन्तः (शेखरग्रन्थस्य व्याख्यानम्)

 

लघुसिद्धान्तकौमुदी - वरदराजभट्टाचार्यः

व्याकरणस्य दार्शनिकाः अन्ये ग्रन्थाः

वाक्यपदीयम् भर्तृहरिः

    1.   अम्बाकर्त्री रघुनाथ शर्मा

परिभाषेन्दुशेखरः नागेश भट्टः

    1.   गदा पायगुण्डे वैद्यनाथः

    2.   हैमवती यागेश्वर-ओझा

वैयाकरणभूषणकारिका – भट्टोजि दीक्षितः

  वैयाकरणसिद्धान्तभूषणम्/ वैयाकरणसिद्धान्तभूषणसारः कौण्डिभट्टः (भट्टोजिदीक्षितस्य भ्रातुष्पुत्रः)

        1.   काशिका हरिरामकेशव काले

        2.   दर्पणम् - हरिवल्लभशर्मा


             
                                                
                                               लेखक- जगदानन्द झा
                                                  9598011847
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3 टिप्‍पणियां:

  1. ज्ञान वर्धक लेख जब भी किसी विषय वस्तु की गूढ़ व शास्त्रीय प्रमाणिक जानकारी चाहिये तो सदैव आपका ब्लॉक हम् सभी पर परोपकार करता है🙏🙏🙏💝 हम् सभी सदैव कृतज्ञ रहेंगे

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