नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों में नायिका भेद

            प्राचीन काल में अभिजात्य नागरजनों एवं विलास प्रिय और साहित्य रसिक के लिए नायिका रसानुभूति का माध्यम तथा मनोरंजन का एक कलापूर्ण साधन रहा है। लक्ष्मीवान् जन की विलास-भूमि का निर्मायक यह नायिका भेद विषयक कथन प्रायः रसिक समाज-गोष्ठी में प्रचलित रहा। रसिक समाज में प्रायशः श्रृंगाररस प्रधान नाटयकृतियां अभिनीत होती रहीं। इस कारण नाटकों में नायिका का महत्वपूर्ण योगदान स्वीकारा गया। उसके लक्षण तथा विभिन्न रूपों पर भी विवेचन हुआ। भरत मुनि नाटयशास्त्र के प्रथम आचार्य हैं। उन्होंने सामान्याभिनय प्रकरण में लिखा है-
             त्रिविधा प्रकृतिः स्त्रीणां नानासत्व समुद्धवा।
             वाह्या चाभ्यन्तरा चैव स्याद् बाहभ्यन्तरा परा।।
इसी प्रकार-
            स्त्रीणां च पुरूषाणां च उत्तमाधमध्यमाः। (-24,1)
मानव मात्र की चारित्रिक प्रवृत्तियां तीन प्रकार की होती हैं-उत्तममध्यमएवं अधम। अपनी इसी मानसिकता से उन्होंने सामान्यभिनय एवं वैशिक अध्यायों में उत्तमामध्यमा और अधमा नायिकाओं का वर्णन किया। प्रियतम द्वारा अपराध होने पर भी पुरूष वचनों को प्रयोग जो न करेउसके दोषों तक का गोपन करे और जो क्षण भर के लिए क्रोधाभिभूत होवह उत्तमा। विपक्षी के प्रति असूया की भावना रखनेवाली नायिका मध्यमा है। बिना किसी कारण क्रोध करने वालीबहुत समय तक क्रोधाभिभूत रहनेवाली तथा प्रणयाभिसार-काल में प्रतिकूल व्यवहार करने वाली अधमा नायिका है।
आचार्य भरत ने उसी प्रकरण में सुखस्य हि स्त्रियो मूलम्‘ कहकर शील अर्थात् प्रवृत्ति के आधार पर बाईस प्रकार की नायिकाएं वर्णित की हैं-
                                    देवतासुरगन्धर्वरक्षो नागपतत्त्रिणाम्।
                                    पिशाचऋक्ष्रव्यालानां नरवानरहस्मिनाम्।।
                                    मृगी मीनोष्ट्रमकर खर सूकरवाजिनाम्।
                                    महिषाजगवादीनां तुल्यशीलाः स्त्रियः स्मृता।।
विभिन्न योनियों में उत्पन्न होने वाले जीवों के शीलचरित के समान आचरणप्रवृत्ति के अनुसार नायिकाओं का लक्षण यहां निरूपित किया गया है। यथा-देवता (स्ग्न्धि अंगोवली)असुर (कलहप्रियाअत्यन्त निष्ठुरा)गन्धर्व (स्मित सहित भाषण करने वाली)तारा (तीक्ष्ण नासिका वाली)राक्षस (रक्तवर्ण और विस्तीर्ण नेत्रों वाली)पिशाच (सुरत करने में कुलसित आचरण वाली)यक्ष (मदिराआमिष आदि में रूचि रखने वाली)व्याघ्र (उद्धत प्रकृति)नर (धर्मार्थ-कामनिरता)कपि (भूरे वर्ण के रोमवाली)हस्ति (दीर्घ हनु और उन्नत ललाट वाली)मृग (स्वल्पोदरी विस्तृतनयन)मकर (ढोल विशेष के अकार वाली)खर (स्थूल जिह्ाओष्ठवाली और रतियुद्धप्रिया)सूकर (पतला मस्तकपृष्ठ भाग और बड़ा मुख वाली)गाय (क्लेश सहन करने वाली) और अज (कृश शरीरशीघ्र चलने वाली)। पश्चात् कालिका आचार्यों में दशरूपपकार धनंजयश्रृंगारतिलक प्रणेता रूद्रभट्ट द्वारा विवेचित लक्षण एवं भेदोपभेदों का अनुसरण किया गया। कर्मानुसार वेश्याकुलटा विवेचित लक्षण एवं भेदोपभेदों का अनुसरण किया गया। कर्मानुसार वेश्याकुलटा और प्रेष्या नायिका के तीन भेद हैं। यही यदि वयानुक्रम में परिगणित की जायें तो नाटयशास्त्र के ही अनुसार वासकसज्जाविरहोत्कंठितास्वाधीन पतिकाकलहान्तरिताखण्डिताविप्रलब्धाप्रोषितभर्तृका एवं अभिसारिका नायिका के आठ भेद हैं ( नाटयशास्त्र/20/203-204)। वस्तुतः नायिकाओं के यही प्रसिद्ध आठ भेद हैं।
शारदातनय के ‘भावप्रकाशनम्‘ तथा शिंगभूपाल रचित ‘रसार्णवसुधाकर‘ दोनों ही नाटयशास्त्रीय ग्रन्थों में नायिका भेद का वर्णन मिलता है।
शारदातनय-भावप्रकाशनम्
            शारदातनय ने देवशीलागन्धर्वशीलायक्षंगनाराक्षसशीलापिशाचशीलानागशीलामत्र्यशीला आदि भेद कहकर क्रमशः उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। साथ ही उदात्ताउद्धताशान्ता और ललिता चार प्रकार के भेद प्रकृति और प्रवृत्ति के आधार पर बता कर इन चारों नायिकाओं के वेशभूषा शील आदि गुणों तथा धर्मादि का विवेचन भी प्रस्तुत किया है। अभिनय-अभिनेयता की दृष्टि से वासकसज्जा आदि आठ विधा भी वर्णित है। दशा के अनुसार ग्रन्थकर्ता ने प्रलब्धाविरहोत्कण्ठिताअभिसारिका केवल तीन ही परिगणित किया है। इस प्रकार नायिकाओं की कुल संकलित संख्या 13 (स्वीया)$2 (परकीया)$1 (सामान्या) 16 हुईवासकसज्जा आदि 8 उनके क्रमशः भेद अर्थात् 128 तथा अन्य में प्रत्येक के उत्तममध्यम और अधम तीन-तीन भेद अर्थात् 128×3 कुल 384 भेद हो गये।

शिंगभूपाल-रसार्णवसुधाकरम्
शिंगभूपाल ने रस के अन्तर्गत विभावना प्रसंग में नायक-नायिका का निरूपण किया है। श्रृंगारालम्बन का परिचय देते हुए उन्होंने लिखा है-
                                    आधारः विषयत्वाभ्यां नायको नायिकापि च।
                                    आलम्बनं मतं तत्र नायको गुणवान् भवेत्।।

इस कारण नायिका भेद निरूपण भी इस ग्रन्थ में श्रृंगार को ही आधार मानकर किया गया है। पूर्वाचार्यों द्वारा तीन भेद स्वीया नायिका के मुग्धामध्या और प्रौढ़ा को ही स्वीकारा है। उन्होंने मुग्धा नायिका के वयोमुग्धानवकामारतौवामामृदुकोपासलज्जरतिशीलाक्रोधेनापयभाषमाणा रूदती ये छह भेदमध्या के समलज्जामदनाअधीराधीरा अधीरा और मोहान्तसुरता ये तीन भेदःमध्या पुन मानवृत्ति के अनुसार धीराप्रोद्यत्तारूझयशालिनी तीन भेद निरूपित किया है। प्रगल्भा के दो भेद-सम्पूर्णयौवनोत्मत्ता फिर मानवृत्ति के पक्ष में धीरा आदि तीन भेद गिनाये गये है। इसी प्र्र्रकार परकीय के अनूढा दो भेद एवं सामान्या के भी दो भेद-रक्ता तथा विरक्ता बताये हैं। उपसंहार करते हुए प्रोषितभर्तृका आदि उत्तमामध्यमा एवं अधमा भेद कथन सहित आठ प्रकार की नायिकाओं का विवेचन है।

 धनज्जय के ‘दशरूपक‘ में नायिका एवं उनके भेद
नाटक-नायक निरूपण प्रसंग में दशरूपककार ने नायिका-विवेचन किया हैयहां श्रृगांरलम्बनरूप का माध्यम नहीं स्वीकारा गया है-स्वान्या साधारणस्त्रीति तद्गुणा नायिका त्रिधा‘ (प्रकाश/2-15)-नायक के समान गुणों वाली नायिका तीन प्रकार की होती है-स्वस्त्री (स्वकीया)परस्त्री (परकीया) और साधारण स्त्री  (सामान्या) स्वकीया के तीन भेद-मुग्घामध्याप्रगगल्भा। फिर मध्या तथा प्रगल्गा के तीन-तीन भेद-धीरभध्याधीराधीरमध्याधीरप्रगल्भाअधीरप्रगल्भाधीराधीरप्रगल्भा पुनः द्वेधा ज्येष्ठा कनिष्ठा चेत्यमुग्धा द्वादशोदिताः-(प्रकाश/2-20)-अमुग्धा ( मध्या एवं प्रगल्भा) के ज्येष्ठा तथा कनिष्ठा दो भेद होते है। इस प्रकार कुल मिलाकर बारह भेद हैं। 
            यह नायिका भेद का प्रकरण अग्निपुराण एवं काव्यालंकार आदि अन्य काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में विशेषतः सांगोपांग भेदोपभेदो-सहित विवेचित है। इन ग्रन्थों में नायिका को नायक के समान गुणवाली मानकर नहीं अपितु उसके निज गुण और प्रकृतिहावभाव तथा चेष्टाओं को आधार स्वीकार कर निरूपित किया गया है।
            आचार्य भरत ने उत्तममध्यम और अधम तीन प्रकार की अंगनाओं का विवरण देते हुए नायिका के यौवन की चार-चार स्थितियां निरूपित की हैं-प्रथम यौवनम् द्वितीय यौवनम्तृतीय यौवनमचतुर्थ यौवनम्-सर्वासमपि नारीणां यौवनलाभा भवन्ति चत्वारः। नेपथ्य रूपबेषैगुणैस्तृ श्रंृगरमासाद्या-(नाटक/23-40)। यौवनक्रम की यही चार अवस्थाएं हैं एवं इस प्रकार नायिका के तीन भेद-मुग्धामध्या और प्रौढ़ा किया गया। काव्यशास्त्रीया ग्रन्थों तथा साहित्यरस-रसिक-सह्द जनों में यही नायिकाएं मोद-दायिका बन कर निरूपण का विषय बनती गयीं। चतुर्थ यौवन श्रृंगारशत्रु रूप होने के कारण सह्दय जन-मानस में स्थान न पा का।
            काव्यशास्त्रीया नायिका के भेद विवेचन का मूलस्त्रोत नाटयशास्त्र ही है। साहियशास्त्रियों ने नाटयाभिनय वर्णित नायिकाओं को अपने विवेचन में नहीं ग्रहण किया। अग्निपुराण एवं श्रृंगारतिलक ग्रन्थों में नायिका-भेद-निरूपण आलम्बन विभाव के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया जो नाटयशास्त्रीया परम्परा से भिन्न है। अग्निपुराण में स्पष्टतः आलम्बन विभाव को कारण स्वरूप मानकर उल्लेख है-
                                                स्वकीया परकीया च पुनर्भूरिति कौशिकः।
                                                सामान्या न पुनर्भूरित्याद्या बहुभेदतः।।
किन्हीं-किन्हीं ग्रन्थों में आत्मीयापरकीया औश्र सर्वाड्ना नायिका के ये तीन रूप परिगणित किये गये हैं। रूद्रट के काव्यालंकार में श्रृंगारसाधीना ही नायिकाओं का सविस्तार विवेचन मिलता है। इस ग्रन्थ में नायिकाओं का भेदोपभेद निरूपण अन्ततोगत्वा तीन सौ चैरासी संख्यात्मक पहुंच गया है। रूद्रट ने प्रथमतः श्रृंगाररस प्रसंग में श्रव्यकाव्य के लिए भी नायिका स्वरूपण की आवश्यकता का सम्यक् प्रतिपादित किया है।

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