हास्य काव्य परम्परा तथा संस्कृत के हास्य कवि

नव रस में एक रस हास्य सर्वतो आनन्दकर रहा है। जीवन में हर प्राणी हंसना चाहता है। प्राचीन राजा खुद को प्रसन्न रखने के लिए साथ में विदूषक को रखा करते थे। ऋग्वैदिक सूक्त से लेकर आज के कवि आचार्य वागीश शास्त्री, डा0 प्रशस्य मि़त्र शास्त्री, डा0 शिवस्वरुप तिवारी तक हास्य की एक अविच्छिन्न परम्परा संस्कृत साहित्य में प्राप्त होती है। हास्य व्यंग्य द्वारा भी उत्पन्न होता है। शास्त्रकारों ने शब्दशक्ति के रुप में व्यंजना को स्वीकार किया है। हास्य गद्य एवं पद्य उभय रुप में प्राप्त होते हैं तथा यह अनेकविध है। कुछ हास्य कथाएँ भी प्राचीन संस्कृत लेखकों ने लिखी हैं परन्तु उसे विशुद्ध हास्य कथा भी नहीं कहा जा सकता।
 हिन्दी साहित्य में इस विधा का प्रयोग स्वतंत्र रुप से किया जाने लगा है। इसका लघुतम रुप चुटकुला है। संस्कृत लेखकों ने भी अपनी रचनाओं में समसामयिक विषयों को समावेश करते हुए अनेकविध हास्य रचनाओं को जन्म दिया।
  साहित्यिक तथा भाषायी दृष्टि से डा0 प्रशस्य मिश्र शास्त्री, तथा डा0 शिवस्वरुप तिवारी की रचना प्रौढ़ नहीं हैं, लेकिन इनकी रचना इतनी सरल है कि अन्य भाषाभाषी भी सहजतया इसके अर्थ को समझ सकें। अभी तक संस्कृत की हास्य विधा कवि सम्मेलनों तथा संस्कृत  पत्रिकाओं तक ही सीमित थी। संस्कृत के प्रौढ़ रचनाकारों ने भी अनेक विधाओं पर रचना की है। दूसरे वर्ग के रचनाकार आधुनिक समसामयिक समस्याओं व व्यवस्थाओं पर लेखन करते रहे हैं। आज का सहृदय समाज में व्याप्त कुरीति, भ्रष्टाचार, स्वार्थ लोलुपता आदि पर जिस कवि के चुटीले अंदाज पर तालियां पीटा करता है, कवि जिस चुटीली कविता को सुनकर व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न खड़ा करता हैः उस चुटीले अंदाज वाली सरल कविता की कमी को डा0 प्रशस्य मिश्र शास्त्री ने पूर्ण किया। हंसते-हंसाते अपनी व्यंग्य कविता द्वारा किसी पर शब्द बाण छोड़ना प्राचीन परम्परा के परिपालक कवियों को आज भी रास नहीं आता। आज भी वे कवि प्राचीन राजाओं तथा देवी देवताओं की स्तुति में ही अपनी काव्य वाणी खर्चकर प्रसन्न होते है। कवि कर्म की दो धारा संस्कृत में फूट पड़ी है। एक वे जो पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का अनुसरण करते हैं, जिनकी संख्या नगण्य रह गयी है। दूसरी धारा के कवि स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े प्रसंगों, उनके नायकों, कश्मीर समस्या, दुःखितों, वंचितों की समस्या, गजलों का रुपान्तरण आदि पर मुखर होकर लिख रहे हैं। इनकी चर्चा हमने एक पृथक् लेख आधुनिक संस्कृत लेखक तथा उनकी रचनाएं में विस्तार पूर्वक किया है।
      प्रस्तुत प्रसंग को आधुनिक संस्कृत की एक विधा हास्यतक सीमित रखना उचित है।
            अल्पज्ञात नाम डा0 शिवस्वरुप तिवारी की एक मात्र रचना सुहासिका की सभी काव्य रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी लखनऊ से हो चुका है। सुहासिका में संकलित काव्य जितने मनोरम, आनन्दवर्धक तथा स्वस्थ हास्य युक्त है, उतना ही लेखक द्वारा लिखित प्राक्कथन भी।
       ग्रन्थारम्भ में गणेश वन्दना भी हास्य से ही शुरु की गयी है-
     नमस्तस्मै गणेशाय योऽतिभीतः पलायते।
      मूषकं वाहनं वीक्ष्य प्लेगाशंकाप्रपीडि़तः।।
भ्रष्टाचार की स्तुति निम्न पद्यों से कवि ने किया है-
            उत्कोचः परमं मित्रं धूर्तता धर्मसंगिनी।
            स्वार्थस्तु गुरुर्यस्य भ्रष्टाचारं भजाम्यहम्।
भ्रष्टाचार के त्रिविध रुप और भ्रष्टाचारियों की पहचान, लक्षण को जितने सरल शब्दों में यहाॅ प्रस्तुत किया है, इसकी सानी बहुत कम देखने को मिलती है। सुहासिका का प्रथम भाग हास्य व्यंग्य को समर्पित है। चाय स्तोत्रम् से लेकर क्वचिन्मर होते हुए उत्कोचसलिला तक कुल 29 विषयों की काव्यधारा में हरेक समसामयिक जीवन्त विषय पर चुटकी ली गयी है।
            डा0 प्रशस्य मिश्र शास्त्री हास्य के क्षेत्र में सर्वज्ञात कवि हैं। इन्होंने पद्य के अतिरिक्त गद्य में भी रचना की है। अनभीप्सितम् पुस्तक पर इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त है। इनकी लगभग प्रत्येक कृति पुरस्कृत है। हास्य संयोजन इतना तीव्र है कि पाठक लोटपोट  हो जाय। 2013 में प्रकाशित हास्यम् सुध्युपास्यम् के रचनाकाल में मेरी उनसे उनके ही आवास रायबरेली में भेंट हुई थी। कवि सम्मुख श्रोता देख कब चूकता है। घंटे भर उनकी यात्रा का भरपूर आनन्द लेता रहा। मंगलाचरण विटपस्थ कालिदासेभ्यो नमःसे करते हैं। इसमें उन नायकों को आड़े हाथ लिया है जो सत्ता को अपने मनमाफिक चलाते है।
                   कश्मीरपण्डित जनान् न हि चिन्तयन्ते।
                            लेहस्थ बौद्वजनतां न विचारयन्ते।
                    किं चाल्पसंख्यकपदेन न ते गृहीताः।
                           पृच्छामि तांस्तु विटपस्थित कालिदासान्।
 इस ग्रन्थ में राजनीति, प्रेम सम्बन्ध, पति, पत्नी पर बहुशः चुटकी ली गयी है। लेखक ने भी इन विषयों का पृथक् पृथक् प्रकरण बनाया है। इनकी भाषा इतनी सरल है कि संस्कृत का नूतन अभ्यासी को भी पढ़ते ही अर्थबोध हो जाय। विषय वर्णन के पश्चात् अंतिम पद्य में रहस्य खोलकर व्यंग्य मिश्रित हास्य घोलना कोई इनसे सीखे। मैं भी सरल और सहज हिन्दी लिखने में विश्वास करता हॅू। भाव सम्प्रेषण में पाण्डित्य की क्या आवश्यकता?
            कहीं कहीं तो ये हास्य उत्पादन की पीठिका इतना लम्बा बांधते है कि उब होने लगती है। जैसे अद्भुत सम्वाद। वस्तुतः यह एक नवीन विधा भी है, जो अंतिम पंक्ति में लिखित अधस्तात् क्रमशश्चोध्वं पठन्तु कृपया जनाः से हास्योत्पत्ति करते हैं। प्रेमिका प्रकरण में राजनैतिक चिह्नों को जोड़कर अर्थध्वनि उत्पन्न किया गया, जो संस्कृत जगत् में सर्वथा नूतन प्रयोग है।
            यथा त्वं भाजपा चिह्नं प्रिय! मह्यं प्रदत्तवान्।
            अहं कांग्रेसचिह्नं तत् तुभ्यं दत्तवती तथा।।
            नर्मदा पुस्तक में एकविंशी शताब्दी समायाति में आधुनिक व्यवस्था, सामाजिक विषमता आदि पर तीखा हमला बोला है-
            श्वानो गच्छति कारयानके
                                   मार्जारः पर्यड्के शेते
            किन्तु निर्धनो मानवबालः
                               बुभुक्षितो रोधनं विधत्ते।
            बाढ़ की विभिषिका का वर्णन करते हुये लिखते है
            एतमेव जलप्रलयं द्रष्टुम्
            नेता सपरिवारम् उड्डयते।

परिहास-विजल्पितम् पुस्तक को लेखक ने कुल 9 प्रकरणों में विभाजित किया है, जिसमें सुहृत्-परिहासाः, आपण-परिहासाः, राजनीति-परिहासाः, वैवाहिक-परिहासाः, दाम्पत्य-परिहासाः, माणवक-परिहासाः, विद्यार्थि-परिहासाः, चिकित्सा-परिहासाः तथा विप्रकीर्ण-परिहासाः है। सुहृत्-परिहासाः के सदा दुर्गा समारूढा में कवि दो मित्रों की आपसी चर्चा को चुटीले परिहास को एक संक्षिप्त कथानक का रूप देते हुए इस तरह प्रस्तुत करते हैं । यह लेखक की शैली है कि वे लगभग अंतिम पद्य में परिहास उपस्थित कर रोमांच पैदा कर देते हैं-

एकदा यज्ञदत्तस्तु मन्दस्मितिपुरःसरम्।

देवदत्तं सखायं स्वं प्रश्नमेवं करोति यत्।।

कार्यालये सदा त्वं भो! सिंहवत् ननु गर्जसि ।

सत्यं ब्रूहि गृहेऽपि त्वं सिंहवत् प्रतिभासि किम् ? ।।

यज्ञदत्तवचः श्रुत्वा देवदत्तोऽपि सुस्मितः ।

पत्न्याः पराक्रमं स्मृत्वा सुहृदं प्रत्युवाच यत्।।

सत्यं ब्रवीमि हे मित्र ! सिंह एवं गृहेऽप्यहम् ।

परन्तु भिन्नता काचित् तत्र या तद् वदाम्यहम्।।

अहं तथाविधः सिंहो यस्योपरि प्रतापिनी

सदा दुर्गा समारूढा भूरिशः प्रतिभाति भो ! ।।

वैवाहिक-परिहासाः का एक परिहास देखें-

एकदा देवदत्तस्तु पत्नीमेकां चपेटिकाम्।

अकस्मात् सहसा तस्या मुखे प्रादात् गृहे यदा ।।

तस्याः पत्नी तदा तत्र संक्षुब्धा प्राह तत्क्षणम्।

कथमेवं विचित्रं हि कृत्यमेतत् कृतं त्वया ?।।

तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा देवदत्तः स्मिताननः।

मन्दं मन्दं विहस्यैवं भार्यां तत्र ब्रवीति यत्।।

यः कश्चित् कुरुते प्रेम केनाऽपि सममेव तत्।

अकस्माद् हन्ति तं तत्र प्रेमाऽऽधिक्येन प्रायशः।।

तदुत्तरं समाकर्ण्य भार्या तस्य मुखे तदा ।

चपेटिका-द्वयं दत्त्वा देवदत्तं ब्रवीति यत्।।

किं केवलं भवानेव जानाति प्रेम-कीर्त्तनम्।

त्वत्तोऽप्यधिकमेवाऽहं प्रेम कुर्वे त्वया सह ।।

विद्यार्थि-परिहासाः प्रकरण के गुरुः किं कपिवद् भवेत् ? शीर्षक के अन्तर्गत शिक्षक द्वारा छात्र से कपि शब्द का अर्थ पूछे जाने को लेखक इस तरह परिहास का रूप देते हैं-

 अध्यापकस्तु कक्षायां छात्रान् प्रश्नं चकार यत्।

'कपि' रित्यस्य शब्दस्य हिन्द्यामर्थः किमुच्यते ? ।।

गुरोस्तत्प्रश्नमाकर्ण्य कश्चित् छात्रो ब्रवीति यत् ।

हिन्द्यां वानर' इत्येष शब्दार्थो विद्यते गुरो ! ।।

ततः प्राध्यापकश्छात्रं प्राह जिज्ञासितस्तदा ।

किं पुस्तकं समालोक्य शब्दार्थम् उच्यते त्वया ? ।।

अध्यापकवचः श्रुत्वा छात्रः किञ्चिद् विचारयन्।

सहजेनैव भावेन शिक्षकम्प्रत्युवाच यत् ।।

नैवम् अस्ति गुरो! नाऽहम् पुस्तकं नैव दृष्टवान्।

भवन्तमेव दृष्ट्वाऽहम् उत्तरं प्रोक्तवान् इदम्।।

"हास्यं सुध्युपास्यम्" नामक काव्य संग्रह तथा अन्य काव्य संग्रह की तरह ही"परिहास-विजल्पितम्" नामक यह काव्य-संग्रह उसी रचनाशीलता का दूसरा परिणाम है, जिसमें हिन्दी पद्यानुवाद भी साथ ही प्रस्तुत किया गया है। इसके 'दाम्पत्य' तथा 'प्रेमिका-परिहास' नामक प्रकरण जहाँ अत्यन्त रोचक हैं वहीं वे आधुनिक जीवनशैली तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक विद्रूपताओं को भी सरस एवं सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। 'छात्र' एवं 'माणवक' नाम से प्रदत्त परिहासों को पढ़कर आपको संस्कृतभाषा में व्यंग्य एवं हास्य का अद्भुत अनुभव प्राप्त होगा। इसी प्रकार पुस्तक के 'विप्रकीर्ण परिहास' में अनेक सामाजिक एवं राष्ट्रिय समस्याओं पर भी रोचक मनोरञ्जक एवं गम्भीर कटाक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसका एक पद्यमय प्रसंग देखें -

स्त्रीलिङ्गता जलेबीषु

 एकदा यज्ञदत्तो वै

 देवदत्तं स्मिताननम्।

 मिष्ठान्नस्याऽऽपणे प्रश्नं

 प्राह किञ्चिद् विचार्य यत् ।।

जलेबी'-व्यञ्जनं तावत्

स्त्रीलिङ्गे हि कथं मतम्?

तदहं ज्ञातुमिच्छामि

कृपया वद चोत्तरम्।।

तस्य तत्प्रश्नमाकर्ण्य

 देवदत्तोऽपि सस्मितः।

 मित्रं सम्बोधयंस्तावद्

वाक्यमेवं ब्रवीति यत् ।।

 प्रकृत्या सरला नाऽस्ति

 वक्रा चक्राsऽकृतिस्तथा।

 परं सदैव स्वादिष्टा

 जलेबी मधुरा भवेत्।।

डॉ. प्रशस्यमित्र द्वारा लिखित एवं प्रकाशित-रचनाएँ-

अभिनव संस्कृत-गीतमाला - १९७५,

आचार्य महीधर एवं स्वामी दयानन्द का माध्यन्दिन-भाष्य- १९८४,

हास विधा पर लिखित पुस्तकें-

हासविलासः (पद्य रचना) - १९८६ ( उ०प्र० संस्कृत-अकादमी का विशेष पुरस्कार प्राप्त), संस्कृतव्यंग्यविलासः (संस्कृत भाषा में सर्वप्रथम सचित्र व्यंग्यनिबन्ध)-१९८९, कोमल-कण्टकावलिः (संस्कृत व्यंग्य काव्यरचना, हिन्दी पद्यानुवाद सहित ) -१९९०; द्वितीय संस्करण-२००७, व्यंग्यार्थकौमुदी (हिन्दी- पद्यानुवाद सहित ) - २००८ (म०प्र० शासन द्वारा अखिल भारतीय 'कालिदास पुरस्कार' से पुरस्कृत), हास्यं- सुध्युपास्यम् (हिन्दी-पद्यानुवाद सहित)- २०१३,

कथा साहित्य-

अनाघ्रातं पुष्पम् (कथा-संग्रह)- १९९४ (दिल्ली-संस्कृत अकादमी का विशेष पुरस्कार), नर्मदा (संस्कृत-काव्यसंग्रह) - १९९७ ( उ०प्र० संस्कृत- अकादमी का विशेष पुरस्कार), आषाढस्य प्रथमदिवसे (कथा-संग्रह)-२००० ( राजस्थान संस्कृत अकादमी का सर्वोच्च पुरस्कार), अनभीप्सितम् (आधुनिक कथा-संग्रह)- २००७ (साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत), मामकीनं गृहम् (आधुनिक कथा-संग्रह) - २०१६। प्रकाशनाधीन-रचनाएँ-अनिर्वचनीयम् (संस्कृत-कथा- संग्रह ) ।


यहाँ मेरा उद्देश्य शोध पत्र लेखन नहीं है, न ही एक पुस्तक से दो बनाना। उद्येश्य है संस्कृत में लिखे जाने वाले हास्य व्यंग्य विधा से आपको परिचित कराना। थोड़ी सूचना देना और आपसे अनुरोध करना कि संस्कृत में भी उच्च कोटि के साहित्य उपलब्ध हैं। संस्कृत में आज भी निरंतर लिखे जा रहे है। इसका अपना पाठक वर्ग तैयार हो। इसमें मेरा भी योगदान हो और आपमें भी संस्कृत साहित्य को पढ़ने की रुचि जगे। इति शम्।
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