देव पूजा विधि Part-11 नवरात्र में दुर्गा-पूजन की विधि

नवरात्र तिथि निर्णय - नवरात्र  शब्द से ही स्पष्ट है कि इसमें नौ दिनों से न होकर नौ (रात्री) तिथियाँ है। तिथियों का उल्लेख पञ्चाङ्ग स्पष्ट रूप से रहता है। नवरात्र की तिथि से तात्पर्य शक प्रतिपदा से नवमी-पर्यन्त होती हैं। कभी आठ दिन में ही नवरात्र पूर्ण हो जाती हैं तो कभी नौ दिनों में । कभी-कभी दस दिन में भी नौ तिथियाँ पूर्ण होती हैं; अतः पञ्चाङ्ग में दिये निर्देशानुसार नवरात्र की अवधि 8 दिन से लेकर 10 दिनों तक हो सकती है। यह प्रतिपदा से लेकर नवमी-पर्यन्त (तिथियों की क्षय-वृद्धि के कारण) सम्पन्न किया जाता है।

मुख्य नवरात्र- चैत्र शुक्ल तथा आश्विन शुक्ल में होने वाला नवरात्र मुख्य नवरात्र तथा प्रचलित नवरात्र हैं। स्कन्दपुराण के अनुसार

आश्विने मधुमासे वा तपोमासे शुचौ तथा।

चतुर्षु नवरात्रेषु विशेषात् फलदायकम्॥

 आषाढ़ शुक्ल तथा पौष शुक्ल में भी प्रतिपदा से लेकर नवमी तिथि-पर्यन्त नवरात्र होते हैं, उन्हें गुप्त नवरात्र कहा जाता है। इनमें आषाढ़ शुक्ल का नवरात्र तो निर्विवाद है, परन्तु पौष शुक्ल के नवरात्र के स्थान पर प्राचीन काल में ही विकल्प हो गया था; तदनुसार कुछ सम्प्रदाय मार्गशीर्ष मास में गुप्त नवरात्र की पूजा शुक्ल प्रतिपदा से नवमी-पर्यन्त करते रहे हैं। इसका उल्लेख श्रीमद्भागवत में आता है। मार्गशीर्ष (हेमन्त के प्रथम मास) में नन्द-व्रज की कुमारियाँ कात्यायनी देवी की पूजा करती थीं

हेमन्ते प्रथमे मासे नन्दव्रजकुमारिकाः ।

चेरुर्हविष्यं भुञ्जानः कात्यायन्यर्चितव्रतम्॥1॥

आप्लुत्यम्भसि कालिन्द्या जलान्ते चोदितेऽरुणे।

कृत्वा प्रतिकृतिं देवीं आनूचुर्नृपसैकतीन्॥2॥

गन्धमाल्यैः सुरभिर्बलिभिधूपदीपकैः ।

उच्चावचैश्चोपहारैः प्रवालफलतण्डुलैः ॥ 3॥

 कुछ माघ शुक्ल में प्रतिपदा लेकर नवमी पर्यन्त देवीपूजा करते हैं। शेष पौष शुक्ल में ही गुप्त नवरात्र मानते हैं ।

देवीभागवत में भी चैत्र-आषाढ़-आश्विन तथा माघ में होने वाले नवरात्र का उल्लेख हैं।

नवरात्र का आरंभ कब करें?

अनुष्ठानप्रकाश के मूल में 'दशघटिका मध्येऽभिजिन्मुहूर्ते वा लिखा है, वह पुरुषार्थचिन्तामणि के अनुसार है। उसके अनुसार जिस शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, अमावस्या की समाप्ति पर (अमावस्या वाले दिन) सूर्योदय से चार मुहूर्त (आठ घटी) अथवा पाँच मुहूर्त (दश घटी) के उपरान्त प्रारम्भ हो जाय तथा द्वितीय दिन (अमावस्या के अगले दिन) केवल दो मुहूर्त ही हो तो उसका क्षय होने से पूर्व दिन ही दश घटी के भीतर नवरात्र का आरम्भ (घटस्थापन) करना चाहिये, परन्तु जिस अमावस्या में दश घटी के भीतर प्रतिपदा का प्रवेश न हो तथा प्रतिपदा का क्षय हो तो उसमें अभिजित् मुहूर्त में घटस्थापन करना चाहिये; अन्यथा सूर्योदय के उपरान्त अगले दिन प्रतिपदा यदि तीन मुहूर्त से अधिक हो तो उसका क्षय न मानकर उसी दिन घटस्थापन कर नवरात्रारम्भ करना चाहिये।

नवरात्र व्रत की पारणा-

धर्मसिन्धुः के अनुसार 'नवरात्रशब्दः आश्विनशुक्लप्रतिपदमारभ्य महानवमीपर्यन्तं क्रियमाणकर्मनामधेयम्। तत्र कर्मणि पूजैव प्रधानम्। उपवासादिकं स्तोत्रजपादिकं चाङ्गम्। तथा च यथा कुलाचारमुपवासैकभक्तनक्तायाचितान्यतमव्रतयुक्तं यथाकुलाचारं सप्तशतीलक्ष्मीहदयादिस्तोत्रजपसहितं प्रतिपदादिनवम्यन्तं नवतिथ्यधिकरणकपूजाख्यं कर्म नवरात्रशब्दवाच्यम्। पूजाप्राधान्योक्तेरेव। क्वचित् कुले जपोपवासादिनियमस्य व्यतिरेक उपलभ्यते। पूजायास्तु न क्वापि कुले नवरात्रकर्मण्यभावो दृश्यते।' धर्मसिन्धुः।

 जिनके परिवार में नवरात्र में नित्य उपवास रखा जाता हो, वह उपवास महानवमी-पर्यन्त (नवरात्रोत्थापनपर्यन्त) करना चाहिये। उसके उपरान्त उसी दिन नवरात्र व्रत की पारणा भी करनी चाहिये। 

नवरात्र में दुर्गापूजा की विधि- 

नवरात्र में प्रतिपदा के दिन (प्रथम दिन) प्रात:काल शौचादि से निवृत्त होकर नवीन वस्त्र धारण करे। चन्दन, कस्तूरी तथा केसर को घिस कर ललाट पर उनका चन्दन लगाये। अपना नित्य पूजन कर्म करके प्रात:काल दश घटी के पूर्व (सूर्योदय से चार घण्टे के मध्य) में अथवा अभिजित् मुहूर्त (ठीक मध्याह्न समय) में कलशस्थापना के लिये शुद्ध मृत्तिका की वेदी (चौकोर चबूतरा) बनाकर अपने आसन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठे अथवा देवी जी के मन्दिर में उनकी प्रतिमा के सम्मुख बैठकर आचमन तथा प्राणायाम करे। हाथ में पवित्री धारण करे।

शुद्ध मृत्तिका में यव रोपण कर उसपर कलश-स्थापन विधि से कलश स्थापन करें। आचमनप्राणायाम करके संकल्प वाक्य के अन्त में 'अमुकगोत्रोऽमुकशर्मा ममेह जन्मनि दुर्गाप्रीतिद्वारा सर्वपापक्षयपूर्वकदीर्घायुर्विपुलधनपुत्रपौत्राद्यविच्छिन्नसन्ततिवृद्धिस्थिरलक्ष्मीकीर्तिलाभशत्रुपराजयसदभीष्टप्रमुखचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धयर्थं संवत्सरसुखप्राप्तिकामः शारदीयनवरात्रे प्रतिपदि विहितं कलशस्थापनं दुर्गापूजां कुमारीपूजादिकर्म करिष्ये, तदङ्गत्वेन निर्विघ्नतार्थं गणपतिपूजनं स्वस्तिपुण्याहवाचनं चण्डीसप्तशतीजपाद्यर्थं ब्राह्मणवरणं च करिष्ये'  इस संकल्प को करें। इसके आगे 
ॐ सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । 
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥1॥ 
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः। 
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि॥2॥ 
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। 
संग्रामे सङ्कटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥3॥ 
इत्यादि श्लोक से गणपति का ध्यान करे। पुनः नीचे लिखे संकल्प से ब्राह्मण का वरण करें।

ॐ अद्य श्रीदुर्गापूजनपूर्वकं मार्कण्डेयपुराणान्तर्गत दुर्गासप्तशती- पाठकरणार्थम् एभिर्वरणद्रव्यैः अमुक गोत्रम् अमुक शर्माणं ब्राह्मणं त्वामहं वृणे।। ब्राह्मण वृतोस्मि कहें।

इसके बाद गणेश पूजन,स्वस्तिवाचन,पुण्याहवाचन,कलश स्थापन, नवग्रह पूजन की विधि सम्पन्न करें। ये सभी विधियां इसी ब्लॉग में दिया हुआ है। विधि के नाम पर क्लिक करने पर भी पेज खुलेगा। इसके बाद प्रधान देवी/ देवता(दुर्गा) का पूजन करें।

(भगवती वाहन, भैरव, ध्वजा आदि का भी पूजन करें।)

भैरव-ध्यान-       ॐ करकलितकपालः कुण्डली दण्डपाणि-

                        स्तरुणतिमिरनीलो व्यालयज्ञोपवीती।

                        क्रतुसमयसपर्या विघ्नविच्छेदहेतु-

                        र्जयति बटुकनाथः सिद्धिदः साधकानाम्।।

देवी-ध्यान-        ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां

                        कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेवितम्।

                        हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखाँश्चापं गुणं तर्जनीं

                        विभ्राणमनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे।।

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य ।

प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वामीश्वरी देवि चराचरस्य ॥

या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी: पापात्मनां कृतधियां ह्रदयेषु बुद्धिः ।

श्रद्धां सतां कुलजन प्रभवश्य लज्जा तां त्वां नतास्म परिपालय देवि विश्वम् ॥

आवाहन- ॐ आगच्छ वरदे देवि दैत्यदर्पनिषूदिनि।

                 पूजां गृहाण सुमुखि नमस्ते शङ्करप्रिये।। आवाहयामि।

आसन-  ॐ अनेकरत्नसंयुक्तं नानामणिगणान्वितम्।

                इदं हेममयं दिव्यमासनं प्रतिगृह्यताम्।। आसनं समर्पयामि

पाद्य-    ॐ गङ्गादिसर्वतीर्थेभ्यो मया प्रार्थनयाहृतम्।

                तोयमेतत् सुखस्पर्शं पाद्यार्थं प्रतिगृह्यताम्।। पाद्यं समर्पयामि।

अर्घ्य- ॐ गन्धपुष्पाक्षतैर्युक्तमघ्र्यं सम्पादितं मया।

             गृहाण त्वं महादेवि प्रसन्ना भव सर्वदा।। अघ्र्यं समर्पयामि।

आचमन- ॐ आचम्यतां त्वया देवि! भक्तिं मे ह्यचलां कुरु।

                ईप्सितं मे वरं देहि परत्र च पराङ्गतिम्।। आचमनं समर्पयामि।

स्नान- ॐ जाह्नवीतोयमानीतं शुभं कर्पूरसंयुतम्।

            स्नापयामि सुरश्रेष्ठे! त्वां पुत्रादिफलप्रदाम्।। स्नानं समर्पयामि।

पञ्चामृतस्नान- ॐ पयो दधि घृतं क्षौद्रं सितया च समन्वितम्।

                       पञ्चामृतमनेनाद्य कुरु स्नानं दयानिधे।। पञ्चामृतस्नान सम.।

शुद्धोदकस्नान- ॐ परमानन्दबोधाब्धिनिमग्ननिजमूर्तये।

                  साङ्गोपाङ्मिदं स्नानं कल्पयाम्यहमीशिते।। शुद्धोदकस्नानं सम.।

वस्त्र- ॐ वस्त्रं च सोमदेवत्यं लज्जायास्तु निवारणम्।

           मया निवेदितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि।। वस्त्रं समर्पयामि।

उपवस्त्र- ॐ यामाश्रित्य महामाया जगत्सम्मोहिनीं सदा।

                तस्यै ते परमेशायै कल्पयाम्युत्तरीयकम्।। उपवस्त्रं समर्पयामि।

मधुपर्क- ॐ दधिमध्वाज्यसंयुक्तपात्रयुग्मसमन्वितम्।

               मधुपर्कं गृहाण त्वं वरदा भव शोभने!।। मधुपर्कं समर्पयामि।

गन्ध- ॐ परमानन्दसौभाग्यपरिपूर्णदिगन्तरे।

                 गृहाण परमं गन्ध कृपया परमेश्वरि।। गन्धं समर्पयामि।

कुङ्कुम- ॐ कुङ्कुमं कान्तिदं दिव्यं कामिनीकामसंभवम्।

               कुङ्कुमेनार्चितं देवि! प्रसीद परमेश्वरि।। कुङ्कुमं समर्पयामि।

आभूषण- ॐ हारकङ्कणकेयूरमेखलाकुण्डलादिभिः।

            रत्नाढ्यं कुण्डलोपेतं भूषणं प्रतिगृह्यताम्।। आभूषणं समर्पयामि।

सिन्दूर- ॐ सिन्दूरमरुणाभासं जपाकुसुमसन्निभम्।

              पूजितासि मया देवि! प्रसीद परमेश्वरि।। सिन्दूरं समर्पयामि।

कज्जल- ॐ चक्षुभ्यां कज्जलं रम्यं सुभगे! शान्तिकारिके!

              कर्पूरज्योतिरुत्पन्नं गृहाण परमेश्वरि।। कज्जलं समर्पयामि।

सौभाग्यद्रव्य- ॐ सौभाग्यसूत्र वरदे! सुवर्णमणिसंयुते।

               कण्ठे बध्नामि देवेशि! सौभाग्यं देहि मे सदा।। सौभाग्यद्रव्यं समर्पयामि।

सुगन्धतैल- (अतर) ॐ चन्दनागरुकर्पूरैः संयुतं कुङ्कुमं तथा।

                        कस्तूर्यादिसुगन्धांश्च सर्वाङ्गेषु विलेपनम्।। सुगन्धतैलं सम0

परिमलद्रव्य- ॐ हरिद्रारंजिते देवि! सुखसौभाग्यदायिनि!।

                   तस्मात्त्वां पूजयाम्यत्र सुखशान्तिं प्रयच्छ मे।। परिमलद्रव्यं समर्पयामि।

अक्षत- ॐ रंजिताः कुङ्कुमौघेन अक्षताश्चातिशोभनाः।

             ममैषां देवि दानेन प्रसन्ना भव शोभने।। अक्षतं समर्पयामि।

पुष्प- ॐ मन्दारपारिजातादि पाटलीकेतकानि च।

            जातीचम्पकपुष्पाणि गृहाणेमानि शोभने।। पुष्पं समर्पयामि।

पुष्पमाला- ॐ सुरभिपुष्पनिचयैः ग्रथितां शुभमालिकाम्।

            ददामि तव शोभार्थं गृहाण परमेश्वरि!।। पुष्पमाल्यां समर्पयामि।

विल्वपत्र-ॐ अमृतोद्भवः श्रीवृक्षो महादेवि प्रियः सदा।

            विल्वपत्रं प्रयच्छामि पवित्रं ते सुरेश्वरि!।। विल्वपत्रं समर्पयामि।

धूप- ॐ दशाङ्गुग्गुलं धूपं चन्दनागरुसंयुतम्।

            समर्पितं मया भक्त्या महादेवि! प्रगृह्यताम्।। धूपमाघ्रापयामि।

दीप- ॐ घृतवर्तिसमायुक्तं महातेजो महोज्वलम्।

          दीपं दास्यामि देवेशि! सुप्रीता भव सर्वदा।। दीपं दर्शयामि। (हाथ धो लें)

नैवेद्य- ॐ अन्नं चतुर्विधं स्वादु रसैः षड्भिः समन्वितम्।

            नैवेद्यं गृह्यतां देवि! भक्तिं मे ह्यचलां कुरु।। नैवेद्यं निवेदयामि।

मध्ये पानीयं जलं समर्पयामि।

ऋतुफल- ॐ द्राक्षाखर्जूरकदलीपनसाम्रकपित्थकम्।

            नारिकेलेक्षुजम्ब्वादि फलानि प्रतिगृह्यताम्।। ऋतृफलं समर्पयामि।

आचमन- ॐ कामारिवल्लभे देवि! कुर्वाचमनमम्बिके!।

            निरन्तरमहं वन्दे चरणौ तव चण्डिके!।। आचमनं समर्पयामि।

ऋतुफल- ॐ नारिकेलं च नारंगं कलिंगं मंजिरं तथा।

        उर्वारुकं च देवेशि-फलान्येतानि गृह्यताम्।। अखण्ड ऋतुफलं समर्प0

ताम्बूलपूगीफल- ॐ एलालवङ्गकस्तूरीकर्पूरैः पुष्पवासिताम्।

                      वीटिकां मुखवासार्थमर्पयामि सुरेश्वरि!।। ताम्बूलपूगीफलं समर्पयामि।

दक्षिणा- ॐ पूजाफलसमृद्ध्यर्थं तवाग्रे द्रव्यमीश्वरि!।

          स्थापितं तेन मे प्रीता पूर्णान् कुरु मनोरथान्।। द्रव्यदक्षिणां समर्पयामि।

पुस्तक-पूजन (जल से न करें)

               ॐनमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।

                   नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।

ज्योति-पूजन  (पूजन करके प्रार्थना करें)

                 ॐ शुभं भवतु कल्याणमारोग्यं पुष्टिवर्धनम्।

                      आत्मतत्त्वप्रबोधाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते।।

इस प्रकार पूजा करने के उपरान्त नवार्ण मंत्र में जिस प्रकार आवरण देवताओं की पूजा कही गयी है, वैसे पूजा  करके फिर देवी की अङ्गपूजा करे। 

अथाङ्गपूजा। 

ॐ दुर्गायै नमः पादौ पूजयामि। ॐ महाकाल्यै नमः गुल्फो पूजयामि। ॐ मङ्गलायै नमः जाननी । पूजयामि। ॐ कात्यायन्यै नमः ऊरू पूजयामि । ॐ भद्रकाल्यै नमः कटिं पूजयामि। ॐ कमलायै नमः नाभिं पूजयामि। ॐ । शिवायै नमः उदरं पूजयामि। ॐ क्षमायै नमः हृदयं पूजयामि। ॐ स्कन्दाय नमः कण्ठं पूजयामि।। ॐ महिषासुरमर्दिन्यै नमः नेत्रे पूजयामि। ॐ उमायै नमः शिरः पूजयामि। ॐ विन्ध्यनवासिन्यै नमः सर्वाङ्गं पूजयामि नमः।। देव्या दक्षिणे सिंहं पूजयामि। वामे महिषं पूजयामि। इस प्रकार अङ्गपूजा करे।।

दशाङ्गं गुग्गुलुं धूपं चन्दनागुरुसंयुतम्। मया निवेदितं भक्त्या गृहाण परमेश्वरि॥ 

ॐ कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भवकर्दम। श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥ इस मंत्र से धूप दिखायें।

आज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया। 

दीपं गृहाण देवि त्वं त्रैलोक्यतिमिरापहम्॥ 

ॐ आपः स्रजन्तु स्निग्धानि चिक्लीतवस मे गृहे। 

निच देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥ इति दीपम्।

अन्नं चतुर्विधं स्वादु रसैः षड्भिः समन्वितम्। 

भक्ष्यभोज्यसमायुक्तं प्रीत्यर्थं प्रतिगृह्यताम्॥ 

ॐ आर्द्रा पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्। 

चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥ इति । नैवेद्यम्। 

नैवेद्यमध्ये पानीयम् उत्तरापोशनं हस्तप्रक्षालनं मुखप्रक्षालनम् आचमनीयं च समर्पयामि।

मलयाचलसम्भूतं कस्तूर्या च समन्वितम्। 

करोद्वर्तनकं देवि गृहाण परमेश्वरि ।।इति करोद्वर्तनम्। 

इदं फलं मया देवि स्थापितं पुरतस्तव। 

तेन मे सफलावाप्तिर्भवेजन्मनि जन्मनि॥ 

ॐ आर्द्रा यः करिणी यष्टीं सुवर्णां हेममालिनीम्। सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह।। इति ऋतुफलम्।

पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्ल्या दलैर्युतम्। 

कर्पूरैलासमायुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्॥ 

ॐ याः फलिनीर्याऽअफलाऽअपुष्पायाश्चपुष्प्पिणीः। 

बृहस्पतिष्प्रसूतास्तानोमुञ्चन्त्व र्ठ० हसः ॥ इति ।

ताम्बूलम्।

हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः। अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे॥

ॐ तामऽआवहजातवेदोलक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यप्रभूतंगावोदास्योश्वान् विन्देयं पुरुषाहम्॥ इति । दक्षिणाम्। 

कर्पूरार्तिक्यम्

कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं च प्रदीपितम्। आरार्तिक्यमहं कुर्वे पश्य मे वरदा भव॥ 

ॐ इदर्ठ०हविः प्रजननम्मेऽअस्तुदशवीर र्ठ०सर्वगण र्ठ०स्वस्तये। 

आत्मसनिप्रजासनिपशुसनिलोकसन्यभयसनि। अग्निः प्रजाम्बहुलाम्मैकरोत्त्वन्नम्पयोरेतोऽअम्मासुधत्त॥ इति कर्पूरार्तिक्यम्।

यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च। तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदेपदे॥

ॐ यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुर्यादाज्यमन्वहम्। 

सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥ इति प्रदक्षिणा।

नानासुगन्धपुष्पाणि यथाकालोद्भवानि च। 

पुष्पाञ्जलि मया दत्तं गृहाण परमेश्वरि॥ 

ततः श्रीसूक्तं सम्पूर्ण प्राकृतनीराजनार्तिं च यथाचारं पठित्वा पुष्पाञ्जलिं निवेदयेत्॥ उसके बाद साष्टाङ्ग प्रणाम करके प्रार्थना करें।

 मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि। 

यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे॥ 

महिषघ्नि महामाये चामुण्डे मुण्डमालिनि। 

यशो देहि धनं देहि सर्वान्कामांश्च देहि मे। 

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। 

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥ 

दुर्गमे दुस्तरे कार्ये भवदुःखविनाशिनीम्। 

पूजयामि सदा भक्त्या दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनीम्॥ 

भूतप्रेतपिशाचेभ्यो रक्षोभ्यश्च महेश्वरि। 

देवेभ्यो मानुषेभ्यश्च भयेभ्यो रक्ष मां सदा॥ 

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । 

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥ 

रूपं देहि यशो देहि भगं भवति देहि मे। 

पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वान्कामांश्च देहि मे।।

इति प्रकार प्रार्थना करके कुमारी की पूजा करें । इसके बाद प्रतिदिन बलिदान करने वाले उड़द, कूष्माण्डा या ईख (गन्ना) से  बलिदान का कार्य पूर्ण करे। 

बलिदान का कार्य करने के पश्चात् अखण्ड दीपक की स्थापना करें।


अखण्डदीपके देव्याः प्रीतये नवरात्रकम्। उज्ज्वालयेदहोरात्रमेकचित्तो एवं देवीं सम्पूज्य चण्डीपाठं कुर्यात्। 
                            

दुर्गासप्तशती (चण्डी) पाठ की विधि-

आचमन तथा प्राणायाम करके देश-काल का उच्चारण कर "अमुकगोत्रोऽमुकोऽहं' कहकर अथवा यदि स्वयं पाठ न करके ब्राह्मण द्वारा पाठ कराना हो तो आचार्य बोलें- 'अमुक यजमानेन वृतोऽहम्' कहकर आगे 'धनकामः / स्त्रीकामः / पुत्रकामः / अमुकरोगनाशकामो (इनमें जो भी कामना हो, उसका उल्लेख करे) मार्कण्डेयपुराणीयम् ॐ सावर्णिः सूर्यतनयो इत्यारभ्य सावर्णिर्भवितामनुरित्यन्तं चण्डीसप्तशतीपाठं कवचार्गलाकीलकनवार्णमन्त्रजपसहितं करिष्ये' ऐसा सङ्कल्प करे। पुस्तक के लिए आसन विछाकर चौकी या रहल पर श्रीदुर्गासप्तशती की पुस्तक को स्थापित कर उसकी पूजा करे। इसके बाद १०८ नवार्ण मन्त्र का जप करके ॐ नारायणाय नमः, ॐ नराय नमः, ॐ नरोत्तमाय नमः, ॐ देव्यै नमः, ॐ सरस्वत्यै नमः, ॐ व्यासाय नमः' इन मंत्रों से नमस्कार कर ॐ का उच्चारण करे। इसके बाद कवच, अर्गला तथा कीलक पढ़कर मार्कण्डेय पुराणोक्त चण्डी/दुर्गा सप्तशती का पाठ करे।

पुस्तकपाठ के नियम-

हाथ में रखकर पुस्तक नहीं पढ़ना चाहिये। यदि ब्राह्मणेत्तर व्यक्ति द्वारा लिखित पुस्तक हो तो उसका पाठ विफल होता है (यदि छपी पुस्तक हो तो उसका पाठ ब्राह्मण द्वारा कराये अथवा ब्राह्मणेतर यजमान आचार्य का वरण कर उसके निर्देशानुसार शुद्ध पाठ करे तथा पूजनादि एवं हवन आचार्य से ही कराये)। अध्याय समाप्त होने पर ही विराम लेना चाहिये; मध्य में विराम नहीं करना चाहिये। यदि किसी कारणवश बीच में विराम लेना पड़े तो उस अध्याय को प्रारम्भ से अन्त तक पुनः पढ़ना चाहिये। पाठ करते समय श्लोकों का अर्थ समझते हुए अक्षरों का स्पष्ट उच्चारण करते हुए पढ़े। बहुत जल्दी या बहुत धीरे धीरे पाठ नहीं पढ़ना चाहिए। अपितु रसभाव-स्वरयुक्त वाचन करना चाहिये।

अथ पाठविधानम्-

सर्वप्रथम हाथ में जल लेकर 'एषां श्रीचण्डीसप्तशत्याः प्रथममध्यमोत्तमचरित्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः । गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः। ऐं ह्रीं क्लीं बीजानि। अग्निवायुसूर्यास्तत्त्वानि। धर्मार्थकामसिद्धयर्थं सप्तशतीपाठे विनियोगः । इतना कहकर विनियोग का जल छोड़े। तदनन्तर मूल में लिखित अधोलिखित पाँच मन्त्रों से उनमें निर्दिष्ट अङ्गों में ऋष्यादिन्यास करें। 

ऋष्यादिन्यासः

ॐ ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः शिरसि ॥ १ ॥ 

ॐ गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्छन्दोभ्यो नमः मुखे ॥ २ ॥ 

ॐ महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताभ्यो नमः हृदये ॥ ३ ॥ 

ॐ ऐंह्रींक्लींबीजेभ्यो नमः गुह्ये ॥ ४ ॥ 

ॐ अग्निवायुसूर्यतत्त्वेभ्यो नमः हृदये ॥ ५ ॥ इति ऋष्यादिन्यासः ।

फिर  'ॐ ह्रीं हृदयाय नमः' इत्यादि छः मन्त्रों से उनमें निर्दिष्ट अङ्गों में हृदयादि न्यास करे। 

हृदयादिन्यासः

ॐ ह्रीं हृदयाय नमः ॥ १ ॥ 

ॐ चं शिरसे स्वाहा ॥ २ ॥ 

ॐ डिं शिखायै वषट् ॥ ३ ॥ 

ॐ कां कवचाय हुम् ॥ ४ ॥ 

ॐ यँ नेत्रत्रयाय वौषट् ।। ५ ।। 

ॐ चण्डिकायै अस्त्राय फट् ॥ ६ ॥ इति हृदयादिन्यासः ।

फिर आगे मूल में लिखित 'ॐ शम्भुतेजोज्वल०' इत्यादि छः मन्त्रों से क्रमशः अङ्गुष्ठों, तर्जनियों, मध्यमाओं, अनामिकाओं, कनिष्ठिकाओं तथा करतलपृष्ठों में चक्रन्यास करना चाहिये। यह चक्र से करन्यास होता है। 

अथ चक्रन्यासः  

ॐ शम्भुतेजोज्ज्वलज्ज्वालामालिनि पावके हां नन्दायै अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॥ १ ॥ 

ॐ शम्भुतेजो ज्वलज्वालामालिनि पावके ह्रीं रक्तदन्तिकायै तर्जनीभ्यां नमः ॥ २ ॥ 

ॐ शम्भुतेजोज्वलज्वालामालिनि पावके हूं शाकम्भर्यै मध्यमाभ्यां नमः ॥ ३ ॥ 

ॐ शम्भुतेजोज्ज्वलज्वालामालिनि पावके हैं दुर्गायै अनामिकाभ्यां नमः ॥ ४ ॥ 

ॐ शम्भुतेजोज्ज्वलज्वालामालिनि पावके ह्रीं भीमायै कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ ५ ॥ 

ॐ शम्भुतेजोज्वलज्ज्वालामालिनि पावके हः भ्रामय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥ ६॥

अधोलिखित विधि चक्र से हृदयादिन्यास करने की है। 'ॐ शम्भुतेज०' इत्यादि मूलोक्त छः मन्त्रों से क्रमशः हृदय, शिर, शिखा, कवच, तीनों नेत्र तथा ताली बजाकर (अस्त्राय फट्) न्यास करना चाहिये।

अथ हृदयादिन्यासः- 

ॐ शम्भुतेजोज्ज्वलज्ज्वालामालिनि पावके हां नन्दायै हृदयाय नमः ॥ १ ॥ 

ॐ शम्भुतेजो ज्वलज्वालामालिनि पावके ह्रीं रक्तदन्तिकायै शिरसे स्वाहा ॥ २ ॥ 

ॐ शम्भुतेजोज्ज्वलज्ज्वालामालिनि पावके शाकम्भय्य शिखायै वषट् ॥ ३ ॥ 

ॐ शम्भुतेजोज्ज्वलज्ज्वालामालिनि पावके हैं दुर्गायै कवचाय हुम् ॥ ४ ॥ 

ॐ शम्भुतेजोज्वल ज्वालामालिनि पावके ह्रौं भीमायै नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ ५ ॥ 

ॐ शम्भुतेजोज्ज्वलज्ज्वालामालिनि पावके ह्रः भ्रामय अस्त्राय फट् ॥ ६॥

'ॐ वाराह्यै नमः' इत्यादि पन्द्रह मन्त्रों से उनमें उल्लिखित अङ्गों में न्यास करना चाहिये।

अथाङ्गन्यासः  

ॐ वाराह्यै नमः पादयोः ॥ १ ॥ ॐ नारसिंह्यै नमः नितम्बे ॥ २ ॥ ॐ चामुण्डायै नमः नाभौ ॥ ३ ॥ ॐ माहेन्द्रयै नमः कण्ठे ॥ ४॥ ॐ ब्रायै नमः पृष्ठे ॥ ५ ॥ ॐ वैष्णव्यै नमः दक्षिणभुजे ॥ ६ ॥ ॐ माहेश्वर्यै नमः वामभुजे ॥ ७ ॥ ॐ कौमार्यै नमः स्कन्धयोः ॥ ८ ॥ ॐ कात्यायन्यै नमः मुखे ॥ ९ ॥ ॐ शिवदूत्यै नमः शिरसि ॥ १० ॥ ॐ शिवायै नमः हृदि ॥ ११ ॥ ॐ काल्यै नमः दक्षकुक्षौ ॥ १२ ॥ ॐ रक्तदन्तिकायै नमः वामकुक्षौ ॥ १३ ॥ ॐ शताक्ष्यै नमः पृष्ठवंशे ।। १४ ।। ॐ शाकम्भर्यै नमः ध्रुवोः ॥ १५ ॥ इत्यङ्गन्यासः ।

मूल ग्रन्थ में लिखित 'ॐ खड्गिनी शूलिनी घोरा' इत्यादि १० मन्त्रों के द्वारा शरीर में निर्दिष्ट अङ्गों में न्यास करना चाहिये। 

अथ खड्गिन्यादिन्यासः –

ॐ खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा शङ्खिनी चापिनी बाण भुशुण्डी परिघायुधेति शिरसि ॥ १ 

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिः स्वनेन चेति मुखे ॥ २ ॥

ॐ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे। भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरीति कण्ठे ॥ ३ ॥

ॐ सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते यानि चात्यर्थघोराणि तैरक्षास्मांस्तथा भुवमिति बाह्रोः ॥ ४॥ 

ॐ खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मात्रक्ष सर्वतः इति हृदये ॥ ५ ॥

ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते इत्युदरे ॥ ६ ॥

ॐ एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम् । पातु नः सर्वभूतेभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते इति नाभौ ॥ ७ ॥

ॐ ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्। त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते इत्यूर्वोः ॥ ८॥

ॐ हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्। सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्यो नः सुतानिवेति जानुनोः ।। ९ ।। 

ॐ असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः । शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयमिति पादयोः ॥ १०॥

इस प्रकार सभी प्रकार के न्यास को किया हुआ  साधक सच्चिदानन्दरूपिणी महालक्ष्मी का ध्यान करे ।

अथ ध्यानम्

अक्षस्त्रपरशुं गदेषुकुलिशं पद्मे धनुष्कुण्डिकां

दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।

शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रवालप्रभां

सेवे सैरिभमर्द्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम् ॥

इस प्रकार ध्यान करके, मानसोपचारों से पूजन करके हाथ जोड़े हुए गुरु तथा देवता एक ही हैं ऐसी भावना करते हुए सप्तशतीस्तव के अर्थ को समझते हुए पाठ करे। पाठ करते समय श्लोक का उच्चारण जल्दी- जल्दी तथा अत्यन्त मन्द स्वर से नहीं करे। मध्यम स्वर में चण्डीपाठ करना चाहिये।

फिर पाठ के उपरान्त - 

ॐ ह्रीं हृदयाय नमः ॥ १ ॥ ॐ चं शिरसे स्वाहा ॥ २ ॥ ॐ डिं शिखायै वषट् ॥ ३ ॥ ॐ कां कवचाय हुं ।। ४ ।। ॐ मैं नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं चण्डिकायै अस्त्राय फट् ॥ ६ ॥ इस प्रकार से षडङ्गन्यास करके फिर १०८ बार नवार्ण मन्त्र को जपकर अहं रुद्रेभिः इस वैदिक देवीसूक्त तथा नमो देव्यै महादेव्यै इस देवीसूक्त को पढ़कर रहस्यत्रय को पढ़े। 

उनमें प्राधानिक रहस्य साढ़े तीस श्लोकों वाला है। वैकृतिक रहस्य उनतालीस श्लोकों में है तथा मूर्तिरहस्य पच्चीस श्लोकों वाला है। पुस्तक गुरु द्वारा संशोधित करा लें । (मुद्रित पुस्तकों में भी अशुद्धियां होती है। प्रामाणिक प्रकाशक की पुस्तक खरीद करके किसी विज्ञ व्यक्ति से अशुद्धियों का परिमार्जन करा लेना चाहिए) 

फिर पूर्वोक्त षडङ्गन्यास करके भगवती से प्रार्थना करे। 

प्रार्थना -

अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् । 

यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥ 

सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके । 

इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि कुरु। 

तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि। 

कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे। 

गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद तथा कुरु ॥  

गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।

 सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि । 

इन पांच मंत्रों से देवी की स्तुति करके देवी के दक्षिणहस्त में जप का अर्पण कर यथा सुख अन्य कार्यों के करें  । 

चण्डीपाठ की फलश्रुति-

मन्त्रमहोदधि में लिखा है-

 मार्कण्डेयपुराणोक्तं नित्यं चण्डीस्तवं पठन्। 

पुटितं मूलमन्त्रेण जपन्नाप्नोति अष्टम्यन्तं वाञ्छितम् ॥ 

आश्विनस्य सिते पक्षे आरभ्याग्नितिथिं सुधीः । 

जपेल्लर्क्ष दशांश होममाचरेत् ॥ 

प्रत्यहं पूजयेद्देवीं पठेत्सप्तशतीमपि । 

विप्रानाराध्य मन्त्रा स्वमिष्टार्थं लभतेऽचिरात् ॥ 

एवं यः कुरुते स्तोत्रं नावसीदति जातुचित्। 

चण्डिकां प्रभजन्मर्त्यो धनैधन्यैर्यशश्चयैः ॥ 

पुत्रैः पौत्रैर्धनारोग्यैर्युक्तो जीवेद्बहूः समाः ॥ 

अर्थात्-  मार्कण्डेय पुराण में वर्णित चण्डीस्तव को नित्य मूलमन्त्र से सम्पुटित करके जप करने वाले को वाञ्छित फल मिलता है। आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ करके बुद्धिमान् व्यक्ति अष्टमी पर्यन्त एक लक्ष मन्त्रजप करे एवं उसका दशांश होम करे। प्रतिदिन देवी की पूजा तथा सप्तशती का पाठ भी करे। ब्राह्मणों को पूजित करे तो जापक को अभीष्ट फल की शीघ्र प्राप्ति होती है। इस प्रकार से जो स्तोत्रपाठ करता है, वह कभी दुखी नहीं होता है। चण्डिका का भजन करने वाला मनुष्य धन-धान्य, यश, ऐश्वर्य, पुत्र तथा पौत्रों के साथ अनेक वर्षों तक सुखपूर्वक जीवन-यापन करता है। 

कुमारी पूजन की विधि-

प्रतिदिन एक कन्या का पूजन करे अथवा शक्ति के अनुसार प्रथम दिन एकद्वितीय दिन दो तथा तृतीय दिन तीन- इस प्रकार वृद्धिक्रम से भी पूजन कर सकते हैं।

तत्र प्रयोगः– 

उसके लिये मण्डप (पूजामण्डप) के भीतर कुङ्कुमादि के द्वारा अष्टदल कमल बनाकर उसके ऊपर स्थापित पीठ पर कन्या को बैठाये। स्वयं यजमान उसके सम्मुख आसन पर बैठे। आचमन कर देश-काल का उच्चारण करते हुए यह संकल्प वाक्य बोले- 'भगवतीदुर्गाप्रसन्नता कुमारीपूजां करिष्येऐसा सङ्कल्प करके उसके पैरों को धो ले। कुमारी के पैर में तैल, सुगन्धित द्रव्य लगाये। फिर उसे खण्ड (पेड़ा-मिश्री)लड्डूघीदहीदूधनारियल की ताजी गिरी बूरा मिलाकर तथा उसके द्वारा चाहा गया भोजन, पेय पदार्थ आदि दे। उसके तृप्त हो जाने पर फिर साधक उन्हें अपने हाथों से आचमन दे। फिर उससे प्रार्थना कर उसके हाथ से दिये गये अक्षतों को अपने शिर पर धारण करे। अंत में कुमारी को दक्षिणा देकर विदा कर दे । 

अथ प्रत्येक कुमारी को पूजन करने की विधि (कुमारीपूजन की विशेष विधि- 

ॐ मन्त्राक्षरमयीं लक्ष्मी मातृकारूपधारिणीम्। 

नवदुर्गात्मिकां साक्षात्कन्यामावहयाम्यहम् ॥  

इस मन्त्र से आवाहन करके कन्या को आसनपाद्यउष्णोदक से पादप्रक्षालनअर्घ्य आचमनीयस्नानवस्त्रकञ्चक तथा अलङ्कारादि यथाशक्ति देकर इत्र लगाकर हरिद्राकुङ्कुमसिन्दूरअलक्तक (महावर)अञ्जनपुष्पमालाधूपदीप आदि से पूजा करके फिर खीरलड्डूगुड़दहीदूध आदि का भोजन प्रदान करे। जब कन्या या कन्यायें भोजन करें तो उस समय साधक नवार्ण मन्त्र का जप करे अथवा सप्तशती का पाठ करता रहे। भोजनोपरान्त कन्याओं को पानीयफलताम्बूलदक्षिणानीराजनपुष्पाञ्जलि आदि निवेदित करे। इसी प्रकार अन्य कन्याओं का भी पूजन करे।

आवाहन में मन्त्रभेद -  

प्रथम दिन- 

जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये सर्वशक्तिस्वरूपिणि । 

पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोऽस्तु ते॥ 

इस मन्त्र से आवाहन कर प्रथम दिन दो वर्ष की कन्या का पूजन करना चाहिये। यह 'कुमारीनाम से कही गई है।

त्रिगुणाधारां त्रिवर्गज्ञानरूपिणीम्। 

त्रैलोक्यवन्दितां देवीं त्रिमूर्ति पूजयाम्यहम् ॥ इति त्रिवर्षाम् । 

नित्यं कल्याण पूजयाम्यहम् ॥ ॥ 

त्रिपुरां कलात्मिकां कलातीतां कारुण्यहृदयां शिवाम् । कल्याणजननीं इति चतुर्वर्षाम् । । 

अनन्तभेदां तां तारां रोहिणीं पूजयाम्यहम् इति पञ्चवर्षाम् । 

अणिमादिगुणाधारामकाराद्यक्षरात्मिकाम् कामचारीं शुभां कान्तां कालचक्रस्वरूपिणीम्। 

कामदां करुणोदारां कालीं सम्पूजयाम्यहम् ॥ इति षड्वर्षाम् । 

चण्डवीयाँ चण्डमयीं चण्डमुण्डप्रभञ्जनीम्। ब्रह्मेशविष्णुनमितां चण्डिकां इति सप्तवर्षाम्। पूजयाम्यहम् ॥ 

सुखानन्दकरीं शान्तां सर्वदेवनमस्कृताम्। सर्वभूतात्मिकां देवीं शाम्भवीं पूजयाम्यहम्॥ इत्यष्टवर्षाम् । 

दुर्गमे दुस्तरे युद्धे भयदुःखविनाशिनीम्। पूजयामि सदा भक्त्या दुर्गा दुर्गतिनाशिनीम् ॥ इति नववर्षाम्। 

स्वर्णवर्णाभां सुखसौभाग्यदायिनीम्। सुभद्रजननीं सुभद्रां पूजयाम्यहम् ॥ देवीं इति दशवर्षां नवमीं पूजयेत्। 

(यथोक्तवर्षालाभे द्विवर्षाद्यामपि पूजयेत् ) | एतैर्मन्त्रैर्द्विवर्षकन्यामारभ्य दशवर्षांवधिकुमारीं क्रमेण स्वस्वमन्त्रेण सम्पूज्य नमस्कारं कुर्यात् । एवं कन्यादक्षिणभागे वटुमेकं वामे चैकं तथैकं पुरतः एवं वटुत्रयमपि पूजयेत् ।

न तथा तुष्यते शक्र होमदानजपेन तु। कुमारीभोजनेनात्र देवी यथा प्रसीदति ॥ वसवो रुद्रा आदित्या गणलोकपाः । सर्वे ते पूजितास्तेन कुमारी येन पूजिता ॥ इति कुमारीपूजाविधानम् । 

  (२) द्वितीय दिवस - 

नवरात्र के द्वितीय दिवस में-'त्रिपुरां त्रिगुणाधारां त्रिवर्गज्ञानरूपिणीम्। त्रैलोक्यवन्दितां देवीं त्रिमूर्ति पूजयाम्यहम्' इस मन्त्र से आवाहन कर तीन वर्ष की कन्या का पूजन करना चाहिये। इसका नाम 'त्रिमूर्ति' कहा गया है। (३) तृतीय दिवस-तृतीया तिथि में चार वर्ष की कन्या का आवाहन-'कलात्मिकां कलातीतां कारुण्यहृदयां शिवाम् । कल्याणजननीं नित्यं कल्याणीं पूजयाम्यहम्' इस मन्त्र से करके उसका पूजन करे। इसे 'कल्याणी' कहा गया है। (४) चतुर्थ दिवस- नवरात्र के चौथे दिन पाँच वर्ष की कन्या को 'अणिमादिगुणाधारां अकाराद्यक्षरात्मिकाम् । अनन्तभेदां तां तारां रोहिणीं पूजयाम्यहम्' इस मन्त्र से आवाहित कर पूजन करे। इसको 'रोहिणी' कहा गया है। (५) पञ्चम दिवस पाँचवें दिन छः वर्ष की कन्या का आवाहन- 'कामचारी शुभां कान्तां कालचक्रस्वरूपिणीम्। कामदां करुणोदारां कालीं सम्पूजयामाम्यहम् ॥' इस मन्त्र से करना चाहिये तथा पूजन करे। यह 'काली' कहलाती है। (६) षष्ठ दिवस-छठे दिन सात वर्ष की कन्या का 'चण्डवीयाँ चण्डमयीं चण्डमुण्डप्रभञ्जनीम्। ब्रह्मेश विष्णुनमितां चण्डिकां पूजयाम्यहम्' इस मन्त्र से आवाहन-पूजन करना चाहिये। यह 'चण्डिका' कही जाती है। (७) सातवें दिन-आठ वर्ष की कन्या का पूजन सातवें दिन 'सुखानन्दकरीं शान्तां सर्वदेवनमस्कृताम्।। सर्वभूतात्मिकां देवीं शाम्भवीं पूजयाम्यहम्' इस मन्त्र से आवाहन कर करना चाहिये। इसको 'शाम्भवी' कहते हैं। (८) आठवें दिन-आठवीं तिथि में नव वर्ष की कन्या को 'दुर्गमे दुस्तरे युद्धे भयदुःखविनाशिनीम्। पूजयामि सदा भक्त्या दुर्गा दुर्गतिनाशिनीम्' इस मन्त्र से आवाहित कर पूजना चाहिये। (९) नवें दिन-नवमी तिथि में दश वर्ष की कन्या का आवाहन-पूजन 'सुन्दरीं स्वर्णवर्णाभा सुखसौभाग्य दायिनीम्। सुभद्रजननीं देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम्' इस मन्त्र से करना चाहिये। इसे 'सुभद्रा' कहा जाता है। इस प्रकार के आयुवर्ग की कन्यायें न मिलने पर कन्यापूजन हेतु दो वर्ष से दश वर्ष तक की कुमारी का चयन करना चाहिये। इस प्रकार प्रत्येक दिन के लिये वर्णित मंत्र से कुमारियों का पूजन कर उन्हें प्रणाम साथ ही प्रत्येक कन्या के वाम भाग में एक वटुक, दक्षिण भाग में दूसरा वटुक तथा कुमारी के आगे तीसरा बटुक (दो वर्ष से दस वर्ष तक का बालक) बैठाकर उसका भी पूजन करना चाहिये। 

देवीपुराण के अनुसार कन्यापूजन का माहात्म्य - 

हे इन्द्र! जितनी प्रसन्नता देवी को कुमारी-पूजन से होती है, उतनी प्रसन्नता उन्हें होम-दान तथा जप से नहीं होती है। जिसके द्वारा कुमारी का पूजन होता है, उससे सभी देवता तथा पितर प्रसन्न हो जाते हैं। 

वाराहीतन्त्रे शिव उवाच चण्डीपाठफलं देवि शृणुध्व कामनापरत्वेन चण्डीपाठसा गदतो मम एकावृत्त्यादिपाठानां यथावत्कथयामि ते ॥ उपसर्गोपशान्त्यर्थं वृत् पठेन्नरः । ग्रहोपशान्तौ कर्तव्या पञ्चावृत्तिर्वरानने ।। महाभये समुत्पन्ने सप्तावृत्तिमुदीरयेत् । नवावृत्तौ भवेच्छान्तिर्वाजपेयफलं राजवश्याय भूत्यै च रुद्रावृत्तिमुदीरयेत् । अर्कावृत्त्या कामसिद्धिर्वैरिहानिश्च मन्वावृत्त्या रिपुर्वश्यस्तथा स्त्री वशतामियात्। सौख्यं कल्पावृत्त्या पुत्रपौत्रधनधान्यागमं विदुः । राजभीतिविनाशाय विपक्षोच्चाटनाय लभेत् ॥ जायते ॥ पञ्चदशावृत्त्या श्रियमाप्नोति प्रिये महाऋणविमोक्षाय विंशावृत्तिं मानवः ॥ च॥ पठेन्नरः ॥ भवेद्वन्धविमोक्षणम् । सङ्कटे म दुश्चिकित्स्यागमे सदा ॥ आयुष नाशमागते । वैरिवृद्धौ व्याधिवृद्धौ धननाशे क्षये ॥ तथा चैवातिपातके। कुर्याद्यनाच्छतावृत्तिं तथा ततः सम्पद्यते शुभम् ॥ कुर्यात्सप्तदशावृत्तीस्तथाष्टादशकं पञ्चविंशावर्तनाद्धि जातिध्वंसे कुलोच्छेदे तथैव त्रिविधोत्पाते विपदस्तस्य नश्यन्ति अन्ते याति परां गतिम् । जयवृद्धौ शतावृत्त्या राज्यवृद्धौ सदा पठेत् ॥ मनसा चिन्तितं देवि सिद्धिरष्टोत्तराच्छतात्। शताश्वमेधयज्ञानां फलमाप्नोति सुव्रते ॥ सहस्त्रावर्तनाल्लक्ष्मीरावृणोति स्वयं स्थिरा। भुक्त्वा कामान्यथाकामं नरो मोक्षमवाप्नुयात् ॥ यथाश्वमेधः क्रतुषु देवानां च यथा हरिः । स्तवानामपि सर्वेषां तथा सप्तशतीस्तवः ॥ नानः परतरं स्तोत्रं किञ्चिदस्ति वरानने भुक्तिमुक्तिप्रदं पुण्यं पावनानां च पावनम् ॥ 

कामनाभेद से चण्डीपाठ की सङ्ख्या (वाराही तन्त्र में ) - 

श्री शिवजी बोले- हे देवि! मुझसे देवीपाठ (चण्डीपाठ) का फल सुनो; अब मैं एकावृत्ति आदि पाठों के भेद कहता हूँ। उपसर्ग की शान्ति के लिये मनुष्य को चण्डीपाठ की तीन आवृत्तियाँ पढ़नी चाहिये। हे वरानने! ग्रहों की शान्ति के लिये पाँच आवृत्तियाँ करनी चाहिये। जब महाभय उत्पन्न हो तो उस समय सात आवृत्तियाँ पढ़नी चाहिये। यदि नौ आवृत्ति का पाठ हो तो वाजपेय का फल प्राप्त होता है। राजा को वश में करने तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये एकादश आवृत्तियाँ तथा बारह आवृत्ति के पाठ से कामना की पूर्ति तथा वैरियों का नाश हो जाता है। चौदह आवृत्ति पाठ से शत्रु तथा स्त्री वश में हो जाते हैं। पन्द्रह आवृत्ति से सौख्य तथा लक्ष्मी की प्राप्ति साधक को हो जाती है। सोलह आवृत्तियों से पुत्र-पौत्र, धन-धान्य का आगम जानना चाहिये। राजभय के विनाश के लिये सत्रह आवृत्ति तथा विपक्ष के उच्चाटन के लिये अट्ठारह आवृत्ति पाठ करना चाहिये। हे प्रिये! महाऋण से विमोक्ष के लिये मनुष्य को बीस आवृत्तियाँ पढ़नी चाहिये। पच्चीस आवृत्तियों से बन्धमोक्ष हो जाता है। जब घोर सङ्कट उपस्थित हो, जिसका उपाय अति कठिन हो; स्वजाति का ध्वंस हो रहा हो, आयु का नाश हो रहा हो (मारकेश लगा हो), शत्रुओं की वृद्धि हो, रोग की वृद्धि हो, धननाश हो, अचल सम्पत्ति का क्षय उपस्थित हो, जब त्रिविध उत्पात (दिव्य, अन्तरिक्ष, भौम) उत्पन्न हों अथवा घोर पातक लग गया हो तो यत्नपूर्वक एक सौ आवृत्ति चण्डीपाठ करने से शुभ हो जाता है। उसकी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं तथा उसे परमगति प्राप्त होती है। जय की वृद्धि के लिये तथा राज्यवृद्धि के लिये सदैव शतावृत्ति पाठ करना चाहिये। हे देवि! एक सौ आठ आवृत्तियों के पाठ से मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति होती है तथा उसे एक सौ अश्वमेध यज्ञों का फल प्राप्त होता है। एक सहस्र पाठ से लक्ष्मी आकर साधक का स्वयं वरण करती है तथा स्थिर हो जाती है एवं मनुष्य भोगों को भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ है तथा देवों श्री विष्णु भगवान् हैं, स्तोत्रों में उसी प्रकार से श्रीदुर्गासप्तशतीस्तव है। हे वरानने ! इससे बढ़कर अन्य कोई दूसरा स्तोत्र नहीं है, जैसा कि सप्तशतीस्तोत्र है। हरगौरीतन्त्रे श्रीकामः पुत्रकामो वा सृष्टिमार्गक्रमेण जपेच्छनादिमारभ्य शान्त्यादिकामः सर्वत्र तु। सावर्णि: सूर्यतनयः सावर्णिर्भविता शुम्भदैत्यवधावपि आद्यमारभ्य प्रजपेत्पश्चाच्छेषं मनुः ॥ समापयेत् ॥ स्थितिमार्गक्रमेण तु। स्थितिपाठः सर्वकामे मुक्तिकामे च संहतिः ॥ संहारे चान्त्यमारभ्य पश्चादादि समापयेत् । हरगौरी तन्त्र के अनुसार सप्तशती का महत्त्व- लक्ष्मी की कामना वाला तथा पुत्र की इच्छा वाला साधक सृष्टिमार्गक्रम से सावर्णि: सूर्यतनयो' से लेकर 'सावर्णिर्भविता मनुः ' पर्यन्त; फिर 'शक्रादयः सुरगणाः (चतुर्थाध्याय) से आरम्भ कर 'शुम्भदैत्यवधश्च' पर्यन्त (दशमाध्यायान्त) पाठ करे। फिर शेष पाठ को समाप्त करे। शान्ति आदि की इच्छा से स्थितिमार्गक्रम से पाठ करना चाहिये। स्थितिपाठ सभी कामनाओं के लिये तथा मुक्ति की कामना के लिये संहृति (संहार) पाठ करना चाहिये। संहार पाठ (संहतिपाठ) में अन्त्य से आरम्भ कर अन्त में समाप्त करना चाहिये। विमर्श यहाँ कामनाभेद से तीन प्रकार का पाठ कहा गया है; उसका स्पष्टीकरण आवश्यक होने से यहाँ दिया जा रहा है (१) सृष्टिमार्ग से पाठ- इसमें प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक से प्रारम्भ कर तेरहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक तक क्रम से पाठ करते हैं। यह पुत्र एवं लक्ष्मी की कामना से करना चाहिये। (२) स्थितिमार्ग या स्थितिक्रम पाठ- इसमें पहिले पञ्चमाध्याय (पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपते) से प्रारम्भ करके और तेरहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक तक कुल नौ अध्यायों का पाठ करने के उपरान्त प्रथमाध्याय से चतुर्थाध्याय (शक्रादि स्तुति अध्याय) तक पाठ करना चाहिये। यह शान्तिकामी के लिये होता है। (३) संहृतिमार्ग (संहारक्रम) - इसमें सर्वप्रथम त्रयोदशाध्याय के अन्तिम श्लोक 'एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः । सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः ॥' से आरम्भ कर संहारक्रम (विलोमक्रम से) प्रथमाध्याय के 'सावर्णिः सूर्यतनयो ० ' श्लोक (प्रथम श्लोक) तक पढ़े। यह संहारक्रम है, जिसे मुक्तिकामी को अपनाना चाहिये। 'दुर्गोपासनाकल्पद्रुम' ग्रन्थ के सङ्कलनकर्ता श्रीहरिकृष्ण शर्मा ने हरगौरी तन्त्र से उद्धृत इन श्लोकों की संस्कृत टीका में यह बात लिखी है। आवृत्तिभेदेन दक्षिणापि तत्रैव पञ्चस्वर्णाः शतावृत्तौ पक्षावृत्तौ तु तत्त्रयम्। पञ्चावृत्तौ स्वर्णमेकं त्रिरावृत्तौ तदर्धकम् ॥ एकावृत्तौ पादमेकं दद्याद्वा शक्तितो बुधः ॥

पुरश्चरण आवृत्ति के भेद से दक्षिणा- 

एक सौ आवृत्ति पाठ पर पाँच स्वर्ण दक्षिणा देनी चाहिये। पन्द्रह आवृत्तियों पर तीन स्वर्ण तथा पाँच आवृत्ति पर एक स्वर्ण, तीन आवृत्ति पर आधा स्वर्ण तथा एक आवृत्ति पर चतुर्थांश स्वर्ण दक्षिणा देनी चाहिये। अथवा समझदार यजमान को अपनी शक्ति के अनुसार दक्षिणा देनी चाहिये। 

अथ सम्युटितहोमे मन्त्र मन्त्रपु श्रीजपुटं दुर्गास्तोत्रं पठेत् सदा मन्त्र होमकाले सदा मन्त्रं दुर्गामन्त्रं पृथक् हुनेत्। कामनाबीजसंयोगो दुर्गामन्त्रेण दुर्गास्तवनमत्राणां सगुण भवेत्। कामनामन्त्रा मध्ये मन्त्रान् समशतं होमकाले तु योजयेत् । पाठे मन्त्रपुढं वाच्यं होममन्त्राः पृथक्पृथक् ।। होमस मन्त्राणां शतं वै चैकविंशतिः । पाठे वीजपुटं वाच्यं होमे बीजपुट हुनेत् ॥ दुर्गा कामनासिद्धिदा च सदा ॥ संहुनेत् ॥ शतं चैव चतुर्दश ॥ 

सम्पुटित होम में मन्त्र-

सप्तशती पाठ को मन्त्रपुट (लौकिक या वैदिक मन्त्र) तथा बीजपुट (ऐं ह्रीं क्लीं इत्यादि) से पुटित करके करना चाहिये। मन्त्र एवं बीज से पुरित दुर्गासप्तशती सदैव कामनाओं को सफल करती है। होम के समय सदैव बीज के संयोग से युक्त मन्त्र से ही होम करना चाहिये तथा सप्तशती के मन्त्रों से पृथक होम करना चाहिये। इस प्रकार उनकी आहुतियों की पहचा ७००-७००- १४०० ही जाती है। यह कामनापूर्वक होम के लिये होती है। पाठमन्त्र तथा होममन्त्रों की सङ्ख्या पृथक्-पृथक् होती है। 

अथ कवचाहुतिनिषेधः तवान्तो चण्डीस्तये प्रतिश्लोक मेकाहुतिरिष्यते। 

रक्षाकवचमॉमे प्रतिश्लोकं जुहोति यः स्यादेहत तस्य अन्धकारख्य महादैत्यो दुर्गाहोमपरायणः कवचाहुतिजात्यायामहेशेन न कारयेत् ॥ तरक प्रतिपद्यते ॥ निपातितः ।। 

अरक्षाकर्मवैरित्यनेन शूलेन पाहि नो देवीत्यादिचतुर्मचैहोंमे न कारयेदिति ज्ञातव्यम्। केचित्कवचादि यस्य रहस्यत्रयस्य चापि होमं वर्जयन्ति। 

कवचाहुति का निषेध (तन्त्रान्तर से)- 

चण्डीस्तव में प्रत्येक श्लोक से एक-एक आहुति होम करना चाहिये; परन्तु रक्षाकवच के 'शूलेन पाहि नो देवी०' इत्यादि चार मन्त्रों से होम नहीं करना चाहिये। जो मूर्खतापूर्वक कवच के प्रत्येक मन्त्र से हवन करता है, वह मरने के पश्चात् अवश्य ही नरक को जाता है; क्योंकि अन्धक नामक दैत्य ने दुर्गाहोम करते समय कवच के मन्त्रों (श्लोकों) से आहुति दी थी। इसी कारण वह भगवान् शिव के हाथों मारा गया था। यहाँ कुछ का मत है कि कवच के साथ तीनों रहस्यों के श्लोकों से भी होम नहीं करना चाहिये। 

अथ कामनाभेदेन दुर्गापाठे सम्पुटिमन्त्र प्रयोग कात्यायनीतवे प्रतिश्लोकमान्तयोः प्रणवेन जपेन्सबसिद्धिः ॥ १॥ प्रणर्व व्याहृतित्रयं च श्लोकादौ पठित्वा जपेन्सत्र सिद्धिः ॥ २॥ 

सप्रणवां सव्याहृतिकां गायत्रीमादावन्ते वा कृत्वा श्लोकं जपेत्तदा महाफलम् ॥ ३॥ 

प्रतिश्लोकमादावन्ते 'जातवेदसे' इति ऋचं जपेत् सर्वकामसिद्धिः ॥ ४ ॥ 

अपमृत्युवारणाय रोगारिक्षयमृत्युन्मूलनमभीप्सितो सर्वापद्वनिवारणाय च शताक्षत्र्यम्बकमन्त्रेण सम्पुटीकृत्य श्लोकं पठेत् (गायत्री० जातवेदसे० त्र्यम्बकेतिमन्त्र त्रयमिलितः शताक्षरः ॥ ५॥ 

प्रतिश्लोकं 'शरणागतदीनान' इति श्लोकं पठेत्सर्वकार्यसिद्धिः ॥ ६॥ 

प्रतिश्लोकम् 'करोतु सा नः शुभ इत्यर्थ पठेत्सर्वकामाप्तिः ॥ ७॥ 

स्वाभीष्टवरप्राप्त्यै एवं देव्या वरे' इति श्लोकं पठेत् ॥ ८॥ 

सर्वापत्तिवारणाय प्रतिश्लोकम् 'दुर्गे स्मृता' इति पठेत् । 

अस्य केवलस्थापि श्लोकस्य कार्यानुसारेण क्षमतेसहस्रं शतं वा जपः ॥ १॥ 

सर्वो बाधा' इत्यस्य लक्षजपेऽपि पूर्वोक्तं फलम् ॥ १० ॥ 

इत्थं यदा यदा बाधा' इति श्लोकस्य लक्षजपे महामारीशान्तिः ॥ ११ ॥ 

'कांसोस्मि' इत्यूचः प्रतिश्लोकं पठेल्लक्ष्मीप्राप्तिः ॥ १२ ॥ 

रोगानशेषान्' इति श्लोकस्य प्रतिश्लोकं पाठे सकलरोगनाशः तनमन्त्रजपेऽपि सः ॥ १३ ॥ 

इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरा' इति प्रतिश्लोकं पाठे पृथग्जपे वा विद्याप्राप्तिर्वाग् वैकृतनाशश्च ॥ १४ ॥

'भगवत्या कृतं सर्वम्०' इत्यादिद्वादशोत्तरशताक्षरीमन्त्रः सर्वकामदः सर्वापत्रिवारणश्च ।। १५ ।। 

'देवि प्रपन्नार्तिहरे' इति श्लोकस्य यथाकार्य लक्षायुतसहस्त्रशतान्यतमे जपे प्रतिश्लोकं पाठे वा सर्वापत्रिवृत्तिः सर्वकार्ये सिद्धिः ॥ १६॥ 

एषु प्रयोगेषु प्रतिश्लोकं दीपाग्रे केवलमेव वा नमस्कारकरणे अतिशीघ्रं सिद्धिः ॥ १७ ॥ प्रतिश्लोकं क्लीं कामबीजसम्पुटितस्यैकचत्वारिंशद्दिनं त्रिरावृत्तौ पुत्रप्राप्तिः ॥ १८ ॥ 

ह्रीं मायावीजपुटितस्य फट्पल्लवसहितस्य सप्तदिनपर्यन्तं त्रयोदशावृत्तौ उच्चाटनसिद्धिः सर्वोपद्रवनाशश्च ॥ १९ ॥ 

श्रीलक्ष्मीबीजपुटितस्य एकोनपञ्चाशद्दिनपर्यन्तं पञ्चदशावृत्तौ लक्ष्मीप्राप्तिः ॥ २० ॥ 

ऐं बीजसम्पुटितस्य शतावृत्त्या विद्याप्राप्तिः ॥ २१ ॥ 

इति कामनापरत्वे सम्पुटितमन्त्र प्रयोगः । 

ॐ ह्रीं ऐं क्लीं श्रीं जगदम्बिकायै नमः। 

कामनाभेद से दुर्गापाठ में सम्पुटित मन्त्र का प्रयोग ( कात्यायनी तन्त्र से) - 

प्रत्येक श्लोक के आदि तथा अन्त में प्रणव (ॐ) जपने से वह सम्पुटयोग्य मन्त्र सिद्ध हो जाता है। श्लोक के आदि में प्रणव तथा तीनों व्याहृति (ॐ भूभुर्वः स्वः) लगाकर जपने से भी मन्त्र सिद्ध होता है। सप्रणव सव्याहृति गायत्री मन्त्र को आदि और अन्त में करके यदि श्लोकों का जप किया जाय तो भी महाफल होता है। प्रति श्लोक के आदि अन्त में 'जातवेदसे० ' ऋचा लगाकर जपने से समस्त कामनाओं की सिद्धि होती है। अपमृत्यु को टालने के लिये, रोग तथा शत्रुनाशार्थ, सर्वापद् निवारणार्थ शताक्षर त्र्यम्बक मन्त्र से (गायत्री मन्त्र जातवेदसे मंत्र त्र्यम्बक मन्त्र तीनों मिलाकर २०० अक्षर) सम्पुटित पाठ करना चाहिये। प्रतिश्लोक को 'शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥' इस श्लोक से सम्पुट करने से सर्वकार्यसिद्धि होती है। प्रतिश्लोक 'करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ।' इस आधे श्लोक का सम्पुट लगाकर पाठ करने से सर्वकामनाओं की प्राप्ति होती है। अभीष्ट वर की प्राप्ति हेतु 'एवं देव्या वरं लब्ध्वा०' इस पूरे श्लोक का सम्पुट लगाना चाहिये। सर्वापत्ति के निवारण हेतु 'दुर्गे स्मृता भीतिमशेषजन्तोः' इत्यादि श्लोक का सम्पुट लगाते हैं अथवा केवल इसी मन्त्र को एक सौ अथवा एक सहस्र अथवा एक अयुत लगाकर पाठ करने से अथवा इसी का एक लाख जप करने से भी पूर्वोक्त फल होता है। 'इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।' इत्यादि श्लोक का सम्पुट अथवा लक्ष जप महामारी-नाशक होता है। 'कांसो ऽस्मि० ' इस ऋचा का सम्पुट लक्ष्मीदायक है। 'रोगानशेषान्。' इत्यादि श्लोक का सम्पुट सकल रोगनाश के लिये होता है। 'इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरा०' इत्यादि श्लोक का सम्पुट अथवा पृथग्जप 'विद्याप्रपन्नार्त्तिहरे' इत्यादि श्लोक के सम्पुट अथवा लक्ष जप से सर्वापदाओं को निवृत्ति होती है। इन प्रयोगों में यदि सप्तशती के प्रत्येक श्लोक के अन्त में अखण्ड ज्योति अथवा दीपक को नमस्कार किया जाय तो अतिशीघ्र सिद्धि होती है। यदि सप्तशती के प्रति श्लोक को 'क्लीं' इस कामबीज से सम्पुटित का पाठ किया जाय तथा ४१-४१ दिनों की तीन आवृत्तियाँ हों तो पुत्र की प्राप्ति होती है। यदि 'ह्रीं' मायाबीज से सम्पुटित तथा 'फट्' पल्लवसहित सप्तशतीपाठ की सात दिन-पर्यन्त तेरह आवृत्ति की जाय तो उच्चाटन में सिद्धि होती है तथा सभी उपद्रव नष्ट होते हैं। लक्ष्मीबीज से पुटित सप्तशती का पाठ उनचास (४९) दिनों तक करके उसकी पन्द्रह आवृत्ति करने से लक्ष्मी प्राप्त होती है। यदि 'ऐं' बीज से सम्पुटित एक सौ आवृत्ति सप्तशती पाठ की पढ़ी जाय तो विद्या की प्राप्ति होती है। 

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1 टिप्पणी:

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