संस्कृत की पुस्तकें वाया संस्कृत संस्थान

         पुस्तकों का संसार मुझे अत्यन्त रोमांचित करते रहा है। बचपन से ही पुस्तकों को पढ़ना और उसे संग्रह करना मेरी दिनचर्या थी। कोई भी पुस्तक मिल जाये उसे जल्द से जल्द पढ़ने को मैं उतावला हो उठता हूँ। ईश्वर ने मेरी सुन ली और मुझे पुस्तकों के बीच ला खड़ा कर दिया।
          पुस्तक अध्ययन की दो संस्थाएँ घर और शैक्षणिक संस्थाओं में पुस्तकें मुझे विरासत में मिली। मेरे पैतृक घर में संस्कृत पुस्तकों से सुसज्जित एक अलमारी थी। बाद में मुझे स्मरण है कि मैं प्रथमा का छात्र था। मेरे बड़े भाई एम. ए. की परीक्षा दे रहे थे। पाठ्यक्रम में पंचदशी एवं अग्निपुराण था। पंचदशी तो समझ में नहीं आया परन्तु अग्निपुराण सभी शास्त्रों का एक ग्रन्थ। पुराण वाङ्मय पर आम धारणा के उलट यहाँ जब मुझे पढ़ने को मिला तो ज्ञानचक्षु खुल गये।
          तब से मैंने एक डायरी बना ली। उसमें जिन पुस्तकों को मैं पढ़ लेता था उस पुस्तक का तथा लेखक का नाम लिख लेता था। मध्यमा तक आते-आते हिन्दी साहित्य एवं संस्कृत के लगभग 105 पुस्तकें मैंने पढ़ डाली। दिनकर, बच्चन, महादेवी वर्मा, प्रसाद, प्रेमचंद, गुरुदत्त, सहजानन्द सरस्वती हिन्दी के मेरे प्रिय कवि एवं लेखक थे। संस्कृत की पुस्तकों का कोई ओर- छोड़ नहीं था। मनुस्मृति मिले या महाभाष्य नह्निदत्त पंचविंशतिका मिले या चरक संहिता। मैं सर्वपाठी था।
          बाद में वाराणसी आने पर नागरी प्रचारणी सभा तथा कुछ अन्य पुस्तकालयों से भीे पुस्तकें लेकर पढ़ने लगा। इसमें स्त्री विमर्श पर लिखे उपन्यास मुझे बहुत प्रभावित करते थे। यहाँ संस्कृत ग्रन्थों का पठन-पाठन कम हो गया है। कारण संस्कृत के सार्वजनिक पुस्तकालयों का अभाव। खोजवां में स्थित अभिमन्यु पुस्तकालय में दो चार ही संस्कृत के पुस्तक थे। वह भी कोर्स के, जिन्हे मैं बहुत पहले ही पढ़ चुका था।
          आचार्य करने तक मेरी पहुँच सन्दर्भ ग्रन्थों तक नहीं हुई थी। मैंने जीवनी संग्रह का भी कार्य किया। संस्कृतज्ञ विद्वानों की जीवनी भी अत्यल्प मात्रा में प्राप्त हुई। हिन्दी साहित्य में ग्रन्थकार की जीवनी व्यक्तित्व कृतित्व की चर्चा पद-पद पर प्राप्त होता रहा परन्तु संस्कृत ग्रन्थों के सम्पादक तदनुरूप लेखन नहीं कर पाये हैं। हिन्दी साहित्य में समालोचना का कार्य बहुत देर से आरम्भ हुआ, जबकि काव्यशास्त्रकारों ने काव्यों पर ढ़ेर सारी समालोचना कर रखी है। संस्कृत के समालोचक तथा हिन्दी समालोचको में महान् भेद होता है। संस्कृत में शब्द और अर्थ के बीच समालोचना घूमती है। रस चर्चा होती है। काव्य के विन्यास पर ज्यादा जोड़ है परन्तु कथ्य पर आलोचना कम। जबकि हिन्दी में कथ्य या काव्य के सन्देशों पर ज्यादा आलोचना की जाती है। लेखकीय पृष्ठभूमि पर विचार मंथन चलता है।
          इसमें लेखक का व्यक्तित्व प्रकाशित होता है। हिन्दी में समाज सुधारक, वैज्ञानिक, स्वतंत्रता संग्राम के नायक, चित्रकार, वास्तुकार, रंगकर्मी, पत्रकार, राजनेता, गायक आदि तमाम क्षेत्र के व्यक्तियों की जीवनी रोचक ढंग से लिखे गये। ये सहजतया मुझे उपलब्ध होते रहे परन्तु संस्कृत में इस प्रकार का लेखन अत्यल्प होने से मैं इससे वंचित ही रहा।
  संस्कृत के क्षेत्र में बच्चों के लिए बहुत ही कम सामग्री मिल पाती है। पाठक वर्ग की कमी कहें या लेखकों की उदासीनता पंचतंत्र तथा हितोपदेश के बाद इसकी कहानियाँ नहीं बढ़ पायी। संस्कृत का सरलीकरण नहीं किया गया। मनोरंजक गणित हो या जलीय जीव। पशु पक्षी के बारे में जानकरियाँ, रोचक शब्द कोश, संस्कृत में उपस्थिति नगण्य है। अभिराज राजेन्द्र मिश्र, सम्पदानन्द मिश्र, विश्वास जैसे  कुछेक लेखकों ने बाल साहित्य पर लिखा है। हिन्दी भाषा में बच्चो के लिए प्रभूत सामग्री मिल जाती है।
          महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में निर्वाध प्रवेश प्रणाली की व्यवस्था न होने से भी मैं संस्कृत के तमाम क्षेत्र से अब तक अनभिज्ञ ही था।
          शोध में प्रवेश लेने के उपरान्त काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में निर्वाध प्रवेश प्रणाली थी परन्तु यहाँ संस्कृत की पर्याप्त मात्रा में पुस्तकें उपलब्ध नहीं थी। विशाल पुस्तकालय में जब तक सहयोगी साथ न हो पुस्तक ढूढ़ना कष्टप्रद ही रहता है।
          अपने अतीत के अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि उच्च शिक्षा में प्रवेशार्थी छात्रों को पुस्तकालय के उपयोग की शिक्षा दी जानी चाहिए।
          पुस्तकालय में पुस्तकों को किस प्रकार वर्गीकरण (विषय के अनुसार एकत्रीकरण) कर निधानियों पर रखा गया है। निधानियों (आलमारी रैक) में पुस्तकें कैसे खोजी जाय आदि की शिक्षा देने से जिज्ञासुओं को महान् लाभ मिलता है। अब तो पुस्तकालयो में पुस्तक सूची को कम्प्यूटरीकृत किया जा रहा है। कहीं आनलाइन सूची भी उपलब्ध है तो कहीं ई फार्मेट में पुस्तकें भी जिसकी चर्चा हम अग्रिम लेख में करेंगे।
          मुझे उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के पुस्तकालय में 1999 से कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भण्डार सत्यापन के दौरान संस्कृत पुस्तकों की विविधता एवं विशालता से परिचित हुआ। जिन तमाम क्षेत्रों की चर्चा में मौखिक सुना करता था उनके मूल ग्रन्थ यहाँ देखने को मिले। कृषि विज्ञान, संहिता शास्त्र, धर्मशास्त्र, निबन्ध ग्रन्थ, कला विषयक ग्रन्थ और सबसे अधिक संस्कृत भाषा में आधुनिक रचनाएँ। यहाँ अनेक कोश, चरित्र कोश, पत्रिकाएँ, स्मारिकाएँ, अभिनन्दन ग्रन्थ, पाण्डुलिपि आदि विषयों पर तमाम ग्रन्थ एवं जानकारी प्राप्त हुई। अब सोचता हूँ काश! कोई ऐसा मार्गदर्शक मुझे मिला होता जो इसकी गम्भीरता से भी मुझे परिचित करता।
          इस पुस्तकालय में ग्रन्थों की बहुलता या प्रचूरता तो है ही साथ-साथ अध्येता भी। मैंने सर्वप्रथम पुस्तकों को व्यवस्थित किया ताकि पाठक सुलभता पूर्वक अपनी पाठ्य सामग्री खोज सकें। मैंने बाल पुस्तकालय का एक सेल तथा पत्रिकाओं का एक सेल गठित किया।
          विषयों के विभाग प्रविभाग कर उसके वर्गाकों की कल्पना पुनः पुस्तकालय का आधुनिकीकरण करते हुए आॅनलाइन पुस्तक सूची उपलब्ध कराने का प्रयास किया। आर्थिक पेचीदगी के रहते भी पुस्तकालय हेतु निर्मित वेबसाइट में नवीन आगत पुस्तकों की सूची, पत्रिकाएँ अवकाश आदि तमाम जानकारियां तथा सुविधाएँ उपलब्ध करा दी गयी है। 

          उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान पुस्तकालय के पुस्तकों को आनलाइन करने के पूर्व मैंने तमाम पुस्तकालयों में चल रहे साफ्टवेयर का परीक्षण किया। इसमें यह विशेष ध्यान रखा कि इस क्षेत्र में अल्प जानकारी रखने वाला पाठक भी सरलतया पुस्तक खोज सके। पुस्तकालय से जुड़ी तमाम जानकारी उसे प्राप्त हो सकें।  
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दिनांक 26.08.17
 पुस्तकालय की वेबसाइट अब बंद हो चुकी है।  मैंने विजुअल वेसिक के आधार पर पुस्तकालय प्रबन्धन नामक साफ्टवेयर बनवाया था। आज नवीन आगत पुस्तकों की डाटाइंट्री, डाटा में संशोधन आदि का कार्य उसी के माध्यम से हो रहा है। पाठकों को पुस्तक की जानकारी लेने में हो रही असुविधा को ध्यान में रखकर प्रो. मदनमोहन झा के पुत्र सृजन झा के सहयोग से मैंने एक मोबाइल ऐप बनाकर संस्कृत प्रेमियों को अपने जन्मदिन 30.12.2016 को उपहार स्वरूप भेंट किया। यह ऐप गूगल प्ले स्टोर पर निःशुल्क उपलब्ध है।
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