कवि बिल्हण और चौरपंचाशिका

     महाकवि बिल्हण मेरे प्रिय कवि हैं। संस्कृत अध्ययन के आरम्भिक वर्षों में मुझे इनकी एक कृति विक्रमांकदेवचरितम् पढ़ने को मिली। इस ग्रन्थ का प्रभाव ऐसा पड़ा कि शेष कवि इतने रूचिकर नहीं लगे।
       मैं बिल्हण को पढ़ने को व्यग्र हो उठा। विक्रमांकदेवचरितम् के अतिरिक्त कर्णसुन्दरी नाटक, शिवस्तुति खोजते-खोजते, चौरपंचाशिका हाथ लगी। चौरपंचाशिका में 50 श्लोक हैं। अतः इसे पंचाशिका कहा गया। इसमें गुप्त प्रेम का वर्णन है। या यूं कहें छुप-छुप कर, चोरी-चोरी से प्रेम करने की कथा-व्यथा इस पुस्तक में बड़े ही मार्मिक भाव से वर्णित हैं। जो लोग संस्कृत पढ़े है वे अद्यापि से शुरू हो रहे इसके प्रत्येक श्लोक को पढ़कर इसमें आकंठ डूब जाते हैं। सौभाग्य से एकदिन मेरे एक अनुज, प्रताप मिश्र पुस्तकालय में आये। इस पुस्तक पर कई घंटो तक चर्चा होती रही। एक-एक श्लोक के निहितार्थ निकाले जाने लगे। श्रृंगार रस में रचित यह गीति काव्य मेघदूत से कहीं आगे जाते दिखा। प्रेमाकुल, विरही युवक युवतियों को तो इसे पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे उसके ही भिन्न-भिन्न मनोदशाओं का वर्णन यहाँ किया गया है। पुस्तक की विधा, रचनाकर के बारे में तो छपी पुस्तकें उपलब्ध है ही अतः मैं भाव, रस, सौन्दर्यबोध, नायिका भेद आदि का वर्णन यहां नहीं करना चाहता। बस इतना ही कहना चाहूँगा। आप यदि कामशास्त्रीय यथा किसी रूपसी (नव यौवन) का वर्णन, प्रेम सम्बन्ध के प्रायोगिक स्वरूप (सुरत व्यापार) आलिंगन (बांहो में भरने) कामभाव के मुक्त मनोहारी आनन्द का ज्ञान चाहते है तो जरूर पढ़े चौरपंचाशिका ।
     इस आलेख को पढ़ते समय एक दूसरे संस्कृत के महान् शास्त्रकार रुद्रट की सलाह को नहीं भूले-
        दूसरे की पत्नी की चाह न रखें, न ही उन्हें श्रृंगारिक उपदेश दें (वार्तालाप करें)
                   कवि बिल्हण गीति काव्य परम्परा के महान कवि है। इनका जन्म 11 वीं शताब्दी में हुआ। ये श्रृंगार रस प्रधान गीति काव्य के अमर गायक हैं। इनका जन्म कश्मीर में हुआ था। इनका कुछ समय मथुरा एवं वृन्दावन में व्यतीत हुआ। कन्नौज, प्रयाग एवं काशी की भी इन्होंने यात्रा की। हम इस पचड़े में भी नही पड़ते कि चौरपंचाशिका के लेखक कवि चौर थे या बिल्हण। मुझे तो बस उस राजपुत्री के प्रेम में पागल हुए अपने कवि की प्रणय व्यथा सुनानी है जो अपनी प्रियतमा के साथ बिताये सुख के दिन को याद कर रहा है।
  अद्यापि तां प्रथमतो वरसुन्दरीणां स्नेहैकपात्रघटिताम् अवनीशपुत्रीम् ।
  हंहोजना मम वियोगहुताशनो ऽयं सोढुं न शक्यतेति प्रतिचिन्तयामि ॥
  अद्यापि वासगृहतो मयि नीयमने दुर्वारभीषणकरैर् यमदूतकल्पैः ।
  किं किं तया बहुविधं न कृतं मदर्थे वक्तुं न पार्यतेति व्यथते मनो मे ॥
हम इस पचड़े में नही पड़ते कि गुप्त प्रेम के इस रोचक ग्रन्थ का कश्मीर या दक्षिण भारत पाठ के अतिरिक्त और कितने पाठ हैं। कितनी टीका है। कवि को मृत्युदण्ड दिया गया या राजकुमार सुन्दर के मृत्युक्षण का उल्लेख इस पद्य में किया गया। वह प्रक्षिप्त है या नहीं। इसके बारे में विशद वर्णन अनेक ग्रन्थों में प्रकाशित है। मुझे तो बस इसमें अधिक रुचि और आनन्द है कि एक राजकुमारी के साथ गुप्त प्रेम कितना सरस होता है। जब कवि अपने गुप्त मिलन के आनन्द को अंतिम बार स्मरण किया तो कैसे? कितना वह मार्मिक स्मरण था कि राजा भी प्रभावित हुए विना नहीं रहा। वह द्रवित हो उठा। राजकुमारी से विवाह की आज्ञा दे दी। मैं भी वसन्ततिलका में रचित कवि के इन पद्यों से प्रभावित होता हूँ-
                   अद्यपि तां रहसि दर्पणमोक्षमाणं
                                   वह अकेले में अपना दर्पण देख रही थी। मैं भी दर्पण के सम्मुख उसके पीछे खड़ा हो गया। जिससे मेरा प्रतिबिम्ब उस दर्पण में दिखने लगा। अचानक दर्पण में अपने पीछे खड़ा प्रतिबिम्ब को देखकर वह लोक लाज के भय से काँप उठी। शरमा गयी। एकान्त के कारण काम पीडि़त को मैं आज भी देखता हूँ।
          अद्यपि तां भुजलता
मेरे गले को अपनी भुजाओं से बाँध अपने दोनों स्तनों से मेरे छाती को ढ़ककर, मेरे मुख को उत्कण्ठा से (आगे की क्रिया की आशा) से एकटक देखती हुई उस भोले मुंह वाली प्रेमिका को आज की देखता हूँ।
 वक्त का मारा मेरा कवि एक दिन राज्यकन्या से प्रेम कर बैठा। इन कवियों को आश्रय दाता राजा होते थे। स्वभावतः इनका दिल राजकन्याओं पर आ जाता था। जगन्नाथ को ही देख लीजिये। ये कवि अन्य स्थान पर प्रेमिका ढूढ हीं नहीं पाते थे। करते भी तो क्या? ये कवि राजाओं के यहां राज सेवक थे। चहुंओर सुरक्षा के कारण एक दिन मेरा प्रिय कवि रंगे हाथ पकड़ा गया। राज सेवक कवि को उसके ही आवास पर आकर पकड़ लिया। चलो कारागार। मेरा कवि पांव आगे रखता है और याद करता है अपने प्रणय लीला को। अद्यपि......। आज वे दिन याद आ रहे हैं पूरे रास्ते भर 50 मार्मिक प्रसंगो को याद कर बोलता जाता है....बोलता जाता है। पूरे रास्ते राजा की ऐसी की तैसी कर दी। अतः हे सुकवियों अब कभी राजा नहीं बनाना। राजा बनाना तो राज घराने में निवास मत कराना। निवास करना तो किसी राजकुमारी से प्रेम नहीं करना। प्रेम करना तो गीति काव्य मत रचना क्योंकि उन्हें पढ़कर मेंरा दिल आज भी बैठ जाता है।

                                 चौरपंचाशिका

अद्यापि तां कनकचम्पकदामगौरीं फुल्लारविन्दवदनां तनुरोमराजीम् ।
सुप्तोत्थितां मदनविह्वललालसाङ्गीं विद्यां प्रमादगुणिताम् इव चिन्तयामि ॥ १ ॥
अद्यापि तां शशिमुखीं नवयौवनाढ्यां पीनस्तनीं पुनरहं यदि गौरकान्तिम् ।
पश्यामि मन्मथशरानलपीडिताङ्गीं गात्राणि संप्रति करोमि सुशीतलानि ॥ २ ॥
अद्यापि तां यदि पुनः कमलायताक्षीं पश्यामि पीवरपयोधरभारखिन्नाम् ।
संपीड्य बाहुयुगलेन पिबामि वक्त्रमुन्मत्तवन्मधुकरः कमलं यथेष्टम् ॥ ३ ॥
अद्यापि तां निधुवनक्लमनिःसहाङ्गीमापाण्डुगण्डपतितालककुन्तलालिम् । ङ
प्रच्छन्नपापकृतमन्थरमावहन्तीं    कण्ठावसक्तबाहुलतां स्मरामि ॥ ४ ॥
अद्यापि तां सुरतजागरघूर्णमान तिर्यग्वलत्तरलतारकम् आयताक्षीम् ।
शृङ्गारसारकमलाकरराजहंसीं व्रीडाविनम्रवदनाम् उषसि स्मरामि ॥ ५ ॥
अद्यापि तां यदि पुनः श्रवणायताक्षीं पश्यामि दीर्घविरहज्वरिताङ्गयष्टिम् ।
अङ्गैरहं समुपगुह्य ततो ऽतिगाढं नोन्मीलयामि नयने न च तां त्यजामि ॥ ६ ॥
अद्यापि तां सुरतताण्डवसूत्रधारीं पूर्णेन्दुसुन्दरमुखीं मदविह्वलाङ्गीम् ।
तन्वीं विशालजघनस्तनभारनम्रां व्यालोलकुन्तलकलापवतीं स्मरामि ॥ ७ ॥
अद्यापि तां मसृणचन्दनपङ्कमिश्र. कस्तूरिकापरिमलोत्थविसर्पिगन्धाम् ।
अन्योन्यचञ्चुपुटचुम्बनलग्नपक्ष्म युग्माभिरामनयनां शयने स्मरामि ॥ ८ ॥
अद्यापि तां निधुवने मधुपानरक्ताम् लीलाधरां कृशतनुं चपलायताक्षीम् ।
काश्मीरपङ्कमृगनाभिकृताङ्गरागां कर्पूरपूगपरिपूर्णमुखीं स्मरामि ॥ ९ ॥
अद्यापि तत् कनकगौरकृताङ्गरागं प्रस्वेदबिन्दुविततं वदनं प्रियायाः ।
अन्ते स्मरामि रतिखेदविलोलनेत्रं राहूपरागपरिमुक्तम् इवेन्दुबिम्बम् ॥ १० ॥
अद्यापि तन्मनसि संपरिवर्तते मे रात्रौ मयि क्षुतवति क्षितिपालपुत्र्या ।
जीवेति मङ्गलवचः परिहृत्य कोपात् कर्णे कृतं कनकपत्रम् अनालपन्त्या ॥ ११ ॥
अद्यापि तत् कनककुण्डलघृष्टगण्डम् आस्यं स्मरामि विपरीतरताभियोगे ।
आन्दोलनश्रमजलस्फुटसान्द्रबिन्दु मुक्ताफलप्रकरविच्छुरितं प्रियायाः ॥ १२ ॥
अद्यापि तत्प्रणयभङ्गगुरुदृष्टिपातं तस्याः स्मरामि रतिविभ्रमगात्रभङ्गम् ।
वस्त्राञ्चलस्खलतचारुपयोधरान्तं दन्तच्छदं दशनखण्डनमण्डनं च ॥ १३ ॥
अद्याप्य् अशोकनवपल्लवरक्तहस्तां मुक्ताफलप्रचयचुम्बितचूचुकाग्राम् ।
अन्तः स्मितोच्छ्वसितपाण्डुरगण्डभित्तिं तां वल्लभामलसहंसगतिं स्मरामि ॥ १४ ॥
अद्यापि तत् कनकरेणुघनोरुदेशे न्यस्तं स्मरामि नखरक्षतलक्ष्म तस्याः ।
आकृष्टहेमरुचिराम्बरम् उत्थिताया लज्जावशात् करघृतं च ततो व्रजन्त्याः ॥ १५ ॥
अद्यापि तां विधृतकज्जललोलनेत्रां पृथ्वीं प्रभूतकुसुमाकुलकेशपाशाम् ।
सिन्दूरसंलुलितमौक्तिकदन्तकान्तिम् आबद्धहेमकटकां रहसि स्मरामि ॥ १६ ॥
अद्यापि तां गलितबन्धनकेशपाशां स्रस्तस्रजं स्मिरसुधामधुराधरौष्ठीम् ।
पीनोन्नतस्तनयुगोपरिचारुचुम्बन् मुक्तावलीं रहसि लोलदृशम् स्मरामि ॥ १७ ॥
अद्यापि तां धवलवेश्मनि रत्नदीप मालामयूखपटलैर् दलितान्धकारे ।
प्राप्तोद्यमे रहसि संमुखदर्शनार्थं लज्जाभयार्थनयनाम् अनुचिन्तयामि ॥ १८ ॥
अद्यापि तां विरहवह्निनिपीडिताङ्गीं तन्वीं कुरङ्गनयनां सुरतैकपात्रीम् ।
नानाविचित्रकृतमण्डनम् आवहन्तीं तां राजहंसगमनां सुदतीं स्मरामि ॥ १९ ॥
अद्यापि तां विहसितां कुचभारनम्रां मुक्ताकलापधवलीकृतकण्ठदेशाम् ।
तत् केलिमन्दरगिरौ कुसुमायुधस्य कान्तां स्मरामि रुचिरोज्ज्वलपुष्पकेतुम् ॥ २० ॥
अद्यापि तां चाटुशतदुर्ललितोचितार्थं तस्याः स्मरामि सुरतक्लमविह्वलायाः ।
अव्यक्तनिःस्वनितकातरकथ्यमान संकीर्णवर्णरुचिरं वचनं प्रियायाः ॥ २१ ॥
अद्यापि तां सुरतघूर्णनिमीलिताक्षीं स्रस्ताङ्गयष्टिगलितांशुककेशपाशाम् ।
शृङ्गारवारिरुहकाननराजहंसीं जन्मान्तरे ऽपि निधने ऽप्य् अनुचिन्तयामि ॥ २२ ॥
अद्यापि तां प्रणयिनीं मृगशावकाक्षीं पीयूषपुर्णकुचकुम्भयुगं वहन्तीम् ।
पश्याम्य् अहं यदि पुनर् दिवसावसाने स्वर्गापवर्गनरराजसुखं त्यजामि ॥ २३ ॥
अद्यापि तां क्षितितले वरकामिनीनां सर्वाङ्गसुन्दरतया प्रथमैकरेखाम् ।
शृङ्गारनाटकरसोत्तमपानपात्रीं कान्तां स्मरामि कुसुमायुधबाणखिन्नाम् ॥ २४ ॥
अद्यापि तां स्तिमितवस्त्रम् इवाङ्गलग्नां प्रौढप्रतापमदनानलतप्तदेहम् ।
बालाम् अनाथशरणाम् अनुकम्पनीयां प्राणाधिकां क्षणम् अहं न हि विस्मरामि ॥ २५ ॥
अद्यापि तां प्रथमतो वरसुन्दरीणां स्नेहैकपात्रघटिताम् अवनीशपुत्रीम् ।
हंहोजना मम वियोगहुताशनो ऽयं सोढुं न शक्यतेति प्रतिचिन्तयामि ॥ २६ ॥
अद्यापि विस्मयकरीं त्रिदशान् विहाय बुद्धिर् बलाच् चलति मे किम् अहं करोमि ।
जानन्न् अपि प्रतिमुहूर्तम् इहान्तकाले कान्तेति वल्लभतरेति ममेति धीरा ॥ २७ ॥
अद्यापि तां गमनम् इत्य् उदितं मदीयं श्रुत्वैव भीरुहरिणीम् इव चञ्चलाक्षीम् ।
वाचः स्खलद्विगलदाश्रुजलाकुलाक्षीं संचिन्तयामि गुरुशोकविनम्रवक्त्राम् ॥ २८ ॥
अद्यापि तां सुनिपुणं यतता मयापि दृष्टं न यत् सदृशतोवदनं कदाचित् ।
सौन्दर्यनिर्जितरति द्विजराजकान्ति कान्ताम् इहातिविमलत्वमहागुणेन ॥ २९ ॥
अद्यापि तां क्षणवियोगविषोपमेयां सङ्गे पुनर् बहुतराम् अमृताभिषेकाम् ।
तां जीवधारणकरीं मदनातपत्राम् उद्वत्तकेशनिवहां सुदतीं स्मरामि ॥ ३० ॥
अद्यापि वासगृहतो मयि नीयमने दुर्वारभीषणकरैर् यमदूतकल्पैर् ।
किं किं तया बहुविधं न कृतं मदर्थे वक्तुं न पार्यतेति व्यथते मनो मे ॥ ३१ ॥
अद्यापि मे निशि दिवाट् हृदयं दुनोति पूर्णेन्दुसुन्दरमुखं मम वल्लभायाः ।
लावण्यनिर्जितरतिक्षतिकामदर्पं भूयः पुरः प्रतिपदं न विलोक्यते यत् ॥ ३२ ॥
अद्यापि ताम् अवहितां मनसाचलेन संचिन्तयामि युवतीं मम जीविताशाम् ।
नान्योपभुक्तनवयौवनभारसारां जन्मान्तरे ऽपि मम सैव गतिर् यथा स्यात् ॥ ३३ ॥
अद्यापि तद्वदनपङ्कजगन्धलुब्ध    भ्राम्यद्द्विरेफचयचुम्बितगण्डदेशाम् ।
लीलावधूतकरपल्लवकङ्कणानां क्वाणो विमूर्च्छति मनः सुतरां मदीयम् ॥ ३४ ॥
अद्यापि तां नखपदं स्तनमण्डले यद् दत्तं मयास्यमधुपानविमोहितेन ।
उद्भिन्नरोमपुलकैर् बहुभिर् समन्ताज् जागर्ति रक्षति विलोकयति स्मरामि ॥ ३५ ॥
अद्यापि कोपविमुखीकृतगन्तुकामा नोक्तं वचः प्रतिददाति यदैव वक्त्रम् ।
चुम्बामि रोदिति भृशं पतितो अस्मि पादे दासस् तव प्रियतमे भज मं स्मरामि ॥ ३६ ॥
अद्यापि धवति मनः किम् अहं करोमि सार्धं सखीभिर् अपि वासगृहं सुकान्ते ।
कान्ताङ्गसंगपरिहासविचित्रनृत्ये क्रीडाभिरामेति यातु मदीयकालः ॥ ३७ ॥
अद्यापि तां जगति वर्णयितुं न कश् चिच् शक्नोत्य् अदृष्टसदृशीं च परिग्रहं मे ।
दृष्टं तयोर् सदृशयोर् खलु येन रूपं शक्तो भवेद् यदि सैव नरो न चान्यः ॥ ३८ ॥
अद्यापि तां न खलु वेद्मि किम् ईशपत्नी शापं गता सुरपतेर् अथ कृष्णलक्ष्मी ।
धात्रैव किं नु जगतः परिमोहनाय सा निर्मिता युवतिरत्नदिदृक्षयाट् वा ॥ ३९ ॥
अद्यापि तन्नयनकज्जलम् उज्ज्वलास्यं विश्रान्तकर्णयुगलं परिहासहेतोर् ।
पश्ये तवात्मनि नवीनपयोधराभ्यां क्षीणां वपुर् यदि विनश्यति नो न दोषः ॥ ४० ॥
अद्यापि निर्मलशरच्शशिगौरकान्ति चेतो मुनेर् अपि हरेत् किम् उतास्मदीयम् ।
वक्त्रं सुधामयम् अहं यदि तत् प्रपद्ये चुम्बन् पिबाम्य् अविरतं व्यधते मनो मे ॥ ४१ ॥
अद्यापि तत् कमलरेणुसुगन्धगन्धि तत्प्रेमवारि मकरध्वजपातकारि ।
प्राप्नोम्य् अहं यदि पुनः सुरतैकतीर्थं प्राणांस् त्यजामी नियतं तदवाप्तिहेतोर् ॥ ४२ ॥
अद्याप्य् अहो जगति सुन्दरलक्षपूर्णे ऽन्यान्यम् उत्तमगुणाधिकसंप्रपन्ने ।
अन्याभिर् अप्य् उपमितुं न मया च शक्यं रूपं तदीयम् इति मे हृदये वितर्कः ॥ ४३ ॥
अद्यापि सा मम मनस्तटिनी सदास्ते रोमाञ्चवीचिविलसद्विपुलस्वभावा ।
कादम्बकेशररुचिः क्षतवीक्षणं मां गात्रक्लमं कथयती प्रियराजहंसी ॥४४ ॥
अद्यापि सा हि नवयौवनसुन्दराङ्गी रोमाञ्चवीचिविलसच्चपलाङ्गयष्टिः ।
मत्स्वान्तसारसचलद्विरहोच्चपंकात् किंचिद्गमं प्रथयति प्रियराजहंसी ॥ ४४ ॥
अद्यापि तां नृपती शेखरराजपुत्रीं संपूर्णयौवनमदालसघूर्णनेत्रीम् ।
गन्धर्वयक्षसुरकिंनरनागकन्यां स्वर्गाद् अहो निपतिताम् इव चिन्तयामि ॥ ४५ ॥
अद्यापि तां निजवपुः कृशवेदिमध्याम् उत्तुंगसंभृतसुधास्तनकुम्भयुग्माम् ।
नानाविचित्रकृतमण्डमण्डिताङ्गी सुप्तोत्थितां निशि दिवा न हि विस्मरामि ॥ ४६ ॥
अद्यापि तां कनककान्तिमदालसाङ्गीं व्रीडोत्सुकां निपतिताम् इव चेष्टमानाम् ।
अगांगसंगपरिचुम्बनजातमोहां तां जीवनौषधिम् इव प्रमदां स्मरामि ॥ ४७ ॥
अद्यापि तत्सुरतकेलिनिरस्त्रयुद्धं बन्धोपबन्धपतनोत्थितशून्यहस्तम् ।
दन्तौष्ठपीडननखक्षतरक्तसिक्तं तस्या स्मरामि रतिबन्धुरनिष्ठुरत्वम् ॥ ४८ ॥
अद्याप्य् अहं वरवधूसुरतोपभोगं जीवामि नान्यविधिनाट् क्षणम् अन्तरेण ।
तद् भ्रातरो मरणम् एव हि दुःख शान्त्यै विज्ञापयामि भवतस् त्वरितं लुनीध्वम् ॥ ४९ ॥
अद्यापि नोज्झति हरः किल कालकूटं कूर्मो बिभर्ति धरणीं खलु पृष्टभागे ।
अम्भोनिधिर् वहति दुःसहवडवाग्निम् अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति ॥ ५० ॥

बिल्हण कवि कृत चौरपंचाशिका (औत्तराह पाठ)

प्रेमादरात्तरलितेन विलोचनेन

वक्त्रेण चारुहसितेन सुधाधरेण ।

ईषविजृम्भितकुचद्वितयेन बाला

 विद्वांसमाशु वशिनं च वशीचकार ॥ २४ ॥

उस कन्या ने प्रेम और आदर से चञ्चल नेत्रों वाले अपने मुख से मनोहर युक्त अपने अमृतपूर्ण अधरों से तथा ईषद्विजृम्भित अपने स्तनद्वय से उस विद्वान् कवि को शीघ्र ही अपने वश में कर लिया ॥ २४ ॥

 श्रीपद्मपत्रनयनां वरपद्महस्तां

पद्मप्रकृष्टचरणां शुचिपद्मगन्धाम् ।

 तां पद्मिनीमिव सुपद्मनिकेतनां वा

मेने कविः शशिकलामिव कामवल्लीम् ॥२५।।

श्रेष्ठ कमल पत्र रूपी नयनों, श्रेष्ठ कर कमलों, श्रेष्ठ चरण कमलों के कारण तथा पवित्र कमल-गन्ध के कारण कवि ने शशिकला को सुन्दर पद्य समूह वाली कमलिनी समझा या फिर उसे कामलता माना ॥ २५ ॥

सा प्राह तं कविमवेक्ष्य मनोनुरागं

स्वामिन्द्वयं भवति सर्वजनोपशान्त्यै ।

तत्त्वं शिवस्य शिवदायि च कामतत्त्वं

त्वं संप्रति स्मरुगुरुः स्मर योग्यमत्र ॥ २६ ॥

कवि के मनोऽनुराग को समझकर वह बाला उससे बोली स्वामिन् ! सारे लोगों को शान्ति प्रदान करने के लिए दो ही तत्त्व इस संसार में होते हैं, एक तो कल्याण प्रदान करने वाला शिव तत्त्व और दूसरा कामतत्व। अब आप विचारें कि यहाँ इन दोनों में से कौन उचित होगा" ॥ २६ ॥

निरर्थकं जन्म गतं नलिया यया न दृष्टं तुहिनांशुबिम्बम् ।

उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलंब रटा प्रहृष्टा नलिनी न येन ॥ ३२ ॥

उस मलिनी का जन्म व्यर्थ गया जिसने चन्द्रविम्ब का दर्शन किया और उसका भी गया जिसने खिली हुई कमलिनी का दर्शन न किया ||३२||  

पूर्णेन्दु बिम्बसदृशं च नृपात्मजास्यमानम्य विद्रुमलतामिव चुम्बनाय ।

कामप्रियव्रत निविष्टतयाऽतिगाढमालिङ्गन सपुलकं प्रथमं चकार ॥ ३३ ॥

उस राजकुमारी के के पूर्णचन्द्र सदृश मुख को कवि ने चुन्द नार्थ उठाया । कामदेव के व्रत में दीक्षित होने के कारण उसने सबसे पहले प्रति प्रालिङ्गन किया जिससे उसे रोमा हो गया ॥ ३३ ॥

नीवी निबन्धन विधानविमोचनाय नाभिप्रदेशनिहितः कविना प्रकोष्ठः ।

कन्दर्पमन्दिरपिधानहरः करोऽस्य रुद्धः स तस्कर इव क्षितिराजपुत्र्या ॥ ३४ ॥

नीची ग्रन्थि के विमोचतार्थ कवि अपना हाथ राजकुमारी के नाभि प्रदेश पर ले गया। जब उसका हाथ तस्कर के समान उसके मदनमन्दिर के वस्त्र का हरण कर रहा था तभी राजपुत्री ने उसे रोक दिया || ३४ ।।

बालिष्य गाढवलालुपतीय मारोप्य वक्षसि रन निपीड्य चोष्ठम् ।

लवेय्यकेन चरणाचनवेत वस्त्रमाकृष्य चाकुलतया सुरतं चकार ।। ३५ ।।

वह गाड़ आलिङ्गन करके राजकुमारी को शय्या पर ले गया। वक्षस्थल पर क्षत किया, अधरों पर दस्तक्षत किया और फिर सवेश्यक ( एक रतिबन्ध ) द्वारा चरणों के अग्रभाग से वस्त्र को खोचकर मुरत-कोड़ा करने लग गया ।। ३५ ।।

चन्द्रानना सुरतकेलिगुडीतवत्रा नेत्रे नि च करद्वितयेन तस्य ।

बायोप्य संक्षु जयने पुरुषायमाणा सा नन्दयत्यति रामलितर्जनेन ।। ३६ ।।

सुरत केलि में हटाये गये वस्त्रों वाली वह चन्द्रमुखी दोनों हाथों से उसके नेत्रों को बन्दकर तुरन्त विपरीतरति करती हुई हाथों की उंगलियों के द्वारा मानों डराठी धमकाती सी अत्यधिक आनन्द प्रदान करने लगी ।। ३६ ।।

सुकोमला चन्द्रमुखी च वाला प्रियं वदन्ती मधुराक्ष राणि ।

कुमोदरी गौरवशालनेत्रा ददातु मे शंकर जन्मजन्मनि ।। ३७ ।।

विशाल नेत्रों वाली, कुशोदरी, सुकोमला तथा चन्द्रमुखी, वह वाला मधुर अक्ष रो को बोलती हुई कहने लगी 'हे शंकर! मुझे प्रत्येक जन्म में यही प्रेमी प्रदान कीजिए' || ३७ ।।

ना कितबालकुरङ्गनेवा मत्तेमकुम्भयुगलस्तन भारतम्रा ।

काश्मीरकण किल संपुटिताभिषेन बोभुज्यते स्मररणे नरराजपुत्री ।। ३८ ।।

उस स्मर-युद्ध में कश्मीरी कवि ने कमलानना चकित बालमृगनयना तथा सवाले करिम्नान स्तन भार से झुकी हुई राजपुत्री का 'संपुरित' नाम वाले रतिबन्ध के द्वारा बारम्बार मोग किया ॥ ३८  ॥

चिरारुणदत्तवासा दन्तप्रमाविजितही रकदम्बशोभा ।

संतोष्यते तदनु पीडितकेन नाम्ना कान्तेन कान्तिकरणेन नरेन्द्रपुत्री ॥३६॥

इसके बाद चंचल, मुंगे के समान सुन्दर, लाल होठों वाली तथा दाँतों की आभा से हीरों के समूहों को शोमा को भी जीत लेने वाली उस राजपुत्रों को छानन्द प्रदान करने वाले प्रेमी ने 'पीडितक' नाम वाले प्रासन से सुख पहुंचाया ॥ ३९ ॥

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4 टिप्‍पणियां:

  1. हिन्दी अनुवाद भी साथ मेंं दें।

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  2. हिन्दी अनुवाद जरुर डालें

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  3. पंडित, राजदरबार और स्वयं की उपमा .. करते बिल्हण के एक श्लोक में संस्ककृत व कवि को जानने की जिज्ञासा में इस लेख तक पहुंचा हूँ। समस्त रसों व भावों में प्रेम ही जीवन शक्ति है। सुंदर आलेख।

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  4. सरल हिंदी काव्यानुवाद किसीने किया है तो वह भी डाले

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